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हैं-अर्थात् उनकी कीर्तिका इन्द्र आदि वखान करते हैं। क्योंकि वे इन्द्र चक्रवर्ती आदि सब शुभ मन वचन कायकी क्रियामें तत्पर रहकर निरन्तर उनकी स्तुति किया करते हैं। इसीलिये सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव 'महाराज' शब्दको धारण करनेके योग्य हैं। ___ "एक दिन वह भिखारी घूमता धामता किसी प्रकारसे उस राजमहलके द्वारपर पहुंच गया और वहां जो 'स्वकर्मविवर' नामका द्वारपाल बैठता था, उसने कृपा करके उसे भीतर चला जाने दिया।" ऐसा जो कहा गया है, सो इस प्रकारसे योजित करना चाहिये कि:जब यह जीव 'घर्षणघूर्णन' न्यायसे अर्थात् जिस तरह नदीमें पत्थर घिसता २ घूमता २ गोल हो जाता है, उस तरह किसी समय काललब्धि पाकर, यथाप्रवृत्तकरण ( अधःप्रवृत्त नामक परिणाम) करता है, उस समय आयुकर्मके सिवाय अन्य सातों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति २३० कोडाकोड़ी सागरमेंसे अन्तकी एक कोडाकोड़ी सागरकी स्थितिको छोड़ कर शेष सब २२९ कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थितिको क्षय कर देता है। फिर उसमें से (एक कोड़ाकोड़ी सागरमेंसे) भी जब कुछ स्थिति क्षीण हो जाती है, तब यह जीव उस परमात्मा महाराजके आचारांगादि द्वादशांगपरमागमरूप मन्दिरके अथवा उस परमागंमके धारण करनेवाले चतुर्विधसंघरूप मन्दिरके द्वारपर पहुंचता है। वहांपर प्रवेश करनेमें तत्पर, और अपने नामके अनुसार गुण रखनेवाला स्वकर्मविवर नामका द्वारपाल है। 'स्वकर्म
१ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायकी. तीस २ कोड़ाकोड़ी सागरकी, नाम और गोत्रकी वीस २ कोडाकोड़ी सागरकी और मोहनीयकी ७० कोडाकोड़ी 'सागरकी स्थिति है। इस तरह सव मिलाकर ' २३० कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थिति है।