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लिये एक दिन अपनी स्त्री और मातासे झिड़के जानेके कारण वे आधी रातको घरसे निकल गये थे और जैनगुरुओंके उपाश्रयमें स्थान पाकर टिक गये थे। बस वहीसे आपके जीवनाभिनयका नवीन सीन आरम्भ हुआ था। महात्मा गपिके प्रभावशाली उपदेशने आपके घ्तव्यसनलिप्त हृदयको विरागी बना दिया और एक ऐसे व्यसनमें लगा दिया, जिससे लाखों जीवोंको मुखका सच्चा और सरल मार्ग मिल गया।दीक्षा लेकर आपने इतना अध्ययन किया और अपनी प्रतिभाको ऐसी विकसित की कि, कालान्तरमें उसमें उपमिनिभवप्रपंना जैसे अपूर्व और आनन्दपूर्ण फल लगे।
ऐसा अनुमान किया जाता है कि, महात्मा सिद्धर्पिके बनाये हुए अनेक ग्रन्य होंगे। परन्तु अभीतक आपके केवल चार ही ग्रन्योंका पता लगा हैं जिनमेंसे एक यह हैं, दूसरा धर्मदासगणिकृत उपदेशमाला नामक ग्रन्धकी टीका है, तीसरा न्यायावतारावित्ति है, जिसे रूसके डा. एन. मारीनो छपा रहे हैं, चौथा श्रीचन्द्रकेवलिचरित्र है जो प्राकृत भाषामें हैं। मुनते हैं कि, इन ग्रंथोंकी रचना भी बड़ी ही सुन्दर हुई है और आपके अगाध पांडित्यको प्रगट करती है।
ऐसा उटेख मिलता है कि महात्मा सिद्धपिने बौद्धग्रन्थोंका कई वर्पतक अध्ययन किया था और उसके कारण आप एक प्रकारसे बौद्ध ही हो गये थे, परन्तु पीछेसे श्रीहरिभद्रमरिकृत ललितविस्तर नामक ग्रन्थके अध्ययनसे फिर जैनधर्ममें सुदृढ़ हो गये थे। ललितविस्तरके कारण श्रीहरिभद्रसूरिके विषयमें आपकी जो निःसीम भक्ति हो गई थी, उसको आपने अपनी रचनामें कई स्थानों में प्रगट किया है। आपने इस