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ऐसे भोजनका त्याग कर देना चाहिये । और जो तू इस भोजनका अच्छा जानता है, सो तेरे अन्तःकरणमें विपर्यास अर्थात् मिथ्यात्व भाव है, इस कारण जानता है । परन्तु यदि तू वास्तवमें मेरे भोजनका स्वाद जान जायगा, तो रोकते हुए भी तू स्वयमेव अपने कुभोजनको छोड़ देगा। क्योंकि-"को नामामृतमास्वाध विपमापातुमिच्छति ।" अर्थात् ऐसा कौन है, जो अमृतका आस्वादन करके फिर विपके पीने की इच्छा करता हो ? इसके सिवाय क्या तू मेरे अंजनकी शक्तिको और जलके माहात्म्यको नहीं देख चुका है, जो मेरे इस परमान्नसम्बन्धी वनोंको नहीं मानता है । और हे सौम्य । जो तू यह कहता है कि, मैंने बड़े क्लेशसे उपार्जन किया है, इसलिये इसे नहीं छोड़ सकता हूं, सो उसके विषयमें भी अब तु मोहको छोड़ करके लुन कि,-तेरा भोजन लेशसे उपार्जित हुआ है, वर्तमानमें केदारप है और भविष्यमें भी क्लेशका करनेवाला है । इसलिये इसे छोड़ देना चाहिये । और जो तू कहता है कि समय पड़नेपर इससे मेरा निर्वाह होना संगव है, सो उसका उत्तर भी विपरीत भावको छोड़कर सुन,-अनन्त दुःखोंको करनेवाला यह कुभोजन यद्यपि समयपर निर्वाह करनेवाला है, परन्तु तेरे जैसे दुखियासे क्या यह सर्वदा स्थिर रह सकता है ? अर्थात् क्या तू इसे सदा बनाये रख सकता है ?
और जो तूने यह कहा कि, "मैं नहीं जानता हूं कि, यह तुम्हारा भोजन मेरे लिये कैसा होगा।" सो मैं जो कुछ कहता हूं, उसमें विश्वास लाकर सुन,-"मैं तुझे विना कटके जितना तू चाहेगा, उतना यह परमान्न निरन्तर दिया करूंगा। इस लिये किसी भी प्रकारकी आकुलता न रखके तू इसे ग्रहण कर । यह भोजन सारी व्याधियोंको जड़से हटा देता है, और संतोप, पुष्टिं, बल, कान्ति और वीर्यादिको