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________________ भूमिका। जैनियोंका साहित्यसागर बहुत विस्तीर्ण और गंभीर है। ज्यों ज्यों अवगाहन किया जाता है त्यों त्यों उसमेंसे ऐसे २ अपूर्व ग्रन्थरत्न हाय लगते हैं, जिनके विषयों पहिले कभी किसीने कल्पना भी नहीं की थी। यह उपमितिभवप्रपंचाकया नामका ग्रन्थ उन्हीं रत्नामेंसे एक सर्वोपरि रत्न है । औरोंका चाहे जो मत हो, परन्तु मैं तो इस ग्रन्यपर यहां तक मुग्ध हूं कि, संस्कृतसाहित्यमें और शायद अन्य किसी भापाके साहित्यमें भी इसकी जोड़का दूसरा अन्य नहीं समझता हूं । मुझे पूर्ण आशा है कि, जो सज्जन इस ग्रन्थका भावपूर्वक आदिसे अन्त तक एकवार अध्ययन करेंगे, उनका भी मेरे ही समान मत हुए विना नहीं रहेगा । इस अभूतपूर्व शैलीका-इस हृदयद्रावक रचनाप्रणालीका यह एक ही ग्रन्थ है। कठिनसे कठिन और रूक्ष विपयको सरलसे सरल और सरस बनानेका शायद ही कोई इससे अच्छा ढंग होगा। __ यह ग्रन्थ बहुत बड़ा है। कोई १६ हजार श्लोकोंमें इसकी रचना हुई है । कई वर्ष पहिले कलकत्तेकी बंगाल रायल एशियाटिकयुसाइटी इस सम्पूर्ण मूल ग्रन्थको शुद्धतापूर्वक प्रकाशित कर चुकी है। इस ग्रन्थके आठ प्रस्ताव वा आठ भाग हैं, जिनमेंसे केवल एक प्रस्तावका हिन्दी अनुवाद मैं आज आपके साम्हने उपस्थित कर सका हूं। यदि आप लोगोंको मेरा यह प्रयत्न रुचिकर हुआ
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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