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करनेसे अपनी दुर्जनता प्रगट होती है और स्तुति करनेसे असत्यभाषणका दोष लगता है । अतएव उनके विषयमें कान न देना ही युक्त है। ___ हमारी इस कथाके श्रवण करनेके पात्र क्षीरसागरके समान गंभीर हृदयवाले, लघुकर्मी (निकटसंसारी) और भव्य सज्जन पुरुष हैं । परन्तु ऐसे पुरुषोंकी भी प्रशंसा तथा निन्दा नहीं करनी चाहिये । इनके विषयमें भी मौन धारण करना श्रेष्ठ है। क्योंकि इन अनन्त गुणशाली पुरुषोंकी निन्दा करनेमें तो महापाप है, और स्तुति हम सरीखे जड़ बुद्धियोंके द्वारा होना कठिन है। इसके सिवाय सज्जन पुरुषोंकी स्तुति न की हो, तो भी वे काव्यमें गुणोंको ही देखते हैं और दोपोंको ढंकते हैं। क्योंकि महात्मा पुरुषोंकी प्रकृति ही ऐसी होती है । अत एव उनकी स्तुति न करके मैं केवल उनसे श्रवण करनेके लिये इस प्रकार अभ्यर्थना करता हूं कि-" हे भव्यपुरुषो । मेरे अनुरोधसे। थोड़ी देर कान लगाकर और चित्तको एकाग्र करके मैं जो वृत्तान्त कहता हूं, उसे सुनोः-"
इति प्रस्तावना।