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भावोंको जो कि अनादिकालसे परिचित हो रहे हैं छोड़कर कुछेक उदारहृदय होता है। . __ और आगे कहा है कि, उस प्रसन्नचित्त भिखारीने सद्बुद्धिसे पूछा . कि, “हे भद्रे ! मुझे ये तीन औषधियां किस कर्मके फलसे प्राप्त हुई हैं ? " तब उसने कहा कि, "स्वयं दत्तमेवात्र लोके लभ्यते अर्थात् इस संसारमें लोग अपना दिया हुआ ही पाते हैं सो जान पड़ता है कि तुमने किसी जन्ममें दूसरोंको ये औषधियां दी होंगी" यह सुनकर सपुण्यकने सोचा कि, “यदि दिया हुआ फिर मिलता है, तो मैं फिर भी बड़े भारी प्रयत्नसे सत्पात्रोंको दान करूं; जिससे कि ये सम्पूर्ण कल्याणोंकी कारणभूत औपधियां मुझे जन्मजन्मान्तरमें भी अक्षय्यरूपसे प्राप्त होवें।" जीवके विषयमें भी ये बातें समान रूपसे घटित होती हैं। देखिये:
यह ज्ञानदर्शन और चारित्रजनित प्रशमसुखका अनुभव करनेवाला जीव सदबुद्धिके प्रसादसे जानता है कि, "ये सम्पूर्ण कल्याणोंके प्राप्त करानेवाले ज्ञान दर्शन और चारित्र यद्यपि अतिशय दुर्लभ हैं, तो भी मुझे किसी प्रकारसे प्राप्त हो गये हैं। इनका पाना पूर्वके किसी शुभाचरणरूप कर्मके विना संभव नहीं। इसलिये जान पड़ता है कि मैंने पूर्वजन्ममें इन्हींके समान कोई निर्मल (शुभ) कर्म अवश्य किया होगा जिससे मुझे इनकी प्राप्ति हुई है। " इसके पश्चात् उसे यह चिन्ता होती है कि, "ये ज्ञानदर्शन चरित्र मुझे अविच्छिन्नरूपसे सदा ही कैसे प्राप्त होते रहेंगे ?" फिर इन तीनों रत्नोंको दान करना ही इनके निरन्तर प्राप्त होते रहनेका कारण है, ऐसा वह अपने मनमें निश्चय कर लेता है और स्थिर कर लेता है कि, अब मैं इन्हें अपनी शक्तिके अनुसार सत्पात्रोंको दान करूंगा, जिससे मेरे मनोरथकी सिद्धि हो। . ..