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पश्चात् इस जीवनमें जीवने जो २ पाप किये हैं, उनकी गुरुमहाराज आलोचना कराके उसके जीवितव्यकी शुद्धि करते हैं । सो इसे भिक्षाके ठीकरेको निर्मल जलसे साफ करनेके समान समझना चाहिये और फिर सम्यकूचारित्रका आरोपण करते हैं, सो इसे साफ किये हुए ठीकरेको परमान्नके भोजनसे भरनेके तुल्य जानना चाहिये।
जीवके दीक्षा लेनेके समय गुरु महाराजके प्रसादसे बिम्बपूजा मंघपूजा आदि भव्यजीवोंके आनन्दित करनेवाले कार्य तथा सन्मार्गकी प्रवृत्ति करानेवाले और बहुतसे उत्सव होते हैं। तथा “ इस बेचारेको हमने संसाररूपी बीहड़ वनके पार लगा दिया " इस प्रकारकी भावनासे गुरुमहाराजके चित्तको संतोप होता है। इससे जीवपर उनकी बड़ी भारी दया होती है और उसके (दयाके) प्रसादसे ही इसकी सद्बुद्धि अतिशय निर्मल होती है। उस समय जीवके ऐसे उत्तम आचरण देखकर लोगोंमें भी जिनशासनकी प्रभावना करनेवाले अच्छे २ विचार उत्पन्न होते हैं। इन सब बातोंको पूर्व कथामें कहे हुए नीचेके श्लोकके तुल्य समझना चाहिये,:
धर्मवोधकरो हृष्टस्तदया प्रमदोद्धरा।
सवुद्धिर्वद्धितानन्दा मुदितं राजमन्दिरम् ॥ अर्थात् यह देखकर धर्मबोधकर हर्पित हुआ, तद्दया उन्मत्त हो गई, सद्बुद्धिका आनन्द बढ़ गया और सारा राजमन्दिर प्रमुदित हो गया। ___ इस जीवने जिस समय सुमेरु पर्वतके समान महाव्रतोंका महा भार धारण किया, उस समय भन्य जीव भक्तिसे गद्गद और रोमांचित होकर प्रशंसा करने लगे,:-यह धन्य है! यह कृतार्थ है। इस महात्माका जन्म लेना सार्थक है। इसकी इस सत्प्रवृत्तिके