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१८३ मानसिक पीडाको गन्ध तक नहीं आवेगी।" गुरुमहाराजका यह उपदेश जीवने अमृतके समान ग्रहण किया। पश्चात् 'इसे सद्बुद्धि, हो गई है, इसलिये अब यह कभी अन्यथा प्रवृत्ति नहीं करेगा' ऐसा समझकर गुरुमहाराज इसकी ओरसे निश्चिन्त हो गये।
सद्बुद्धिके प्राप्त हो जानेपर यह श्रावकअवस्थामें वर्त्तता हुआ . जीव यद्यपि विषयभोग करता है, और धनादि पदार्थ ग्रहण करता
है-उपार्जन करता है, तथापि अतृप्तिकी करनेवाली अभिलापाके नहीं होनेके कारण इस को जिसका कि मन ज्ञान दर्शन और देशचारित्रमें लग गया है, धन भोगादि जितने पदार्थ प्राप्त होते हैं, उतने ही संतोपित कर देते हैं। सहद्धिके प्रभावसे उस समय यह जितना प्रयत्न ज्ञानादिके लिये करता है, उतना धनादिके लिये नहीं करता है, इससे नये रागादि विकारोंकी वृद्धि नहीं होती है और प्राचीनोंकी क्षीणता होने लगती है। इसके सिवाय पूर्वके संचित किये हुए कर्मोका परिपाक होनेसे यद्यपि इसे कभी २ शारीरिक
और मानसिक कष्ट होते हैं, तथापि वे अनुवन्धरहित होनेके कारण बहुत समय तक नहीं ठहरते हैं। इससे यह जीव संतोप और असंतोपके गुण दोप जानने लगता है और उत्तरगुणोंकी प्राप्तिसे इसका चित्त आनन्दित रहने लगता है। ___ आगे कथा'-प्रसंगमें कहा है कि, एक दिन उस दरिद्रीने अपनी सद्बुद्धि नामकी परिचारिकासे पूछा कि, "हे भद्रे ! मेरा शरीर
और चित्त अब प्रसन्न रहने लगा है, सो इसका क्या कारण है ?" तब उसने इसके दो कारण बतलाये, एक तो ठीकरेके बुरे भोजनमें जो तीव्र लालसा रहती थी, उसका अभाव और दूसरा तीर्थना
१ इसका सम्बन्ध पृष्ठ ४३ की पहिली पंक्तिसे है। .