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१८१ यह सुनकर जीवने कहा-"किन्तु हे नाथ ! वह सद्बुद्धि भी तो मुझे आपके ही प्रसादके मिलेगी। आपके प्रसादके सिवाय उसके पानेका
और कोई उपाय नहीं है।" तब गुरुमहाराज बोले, "अच्छा तो हे भद्र ! हम तुझे सद्बुद्धि देते हैं। परन्तु वह हम सरीखे पुरुषोंके ही वचनाधीन रहती है। हम उसे दूसरोंको दे भी देवें, तो भी वह केवल उन्हीं जीवोंपर अपना अच्छा असर करती है, जो पुण्यवान् हैं। दूसरे पुण्यहीनोंपर उसका अच्छा परिणाम नहीं होता है। क्योंकि पुण्यवान् जीव ही उसका आदर करते हैं, अपुण्यवान् नहीं । शरीरधारियोंको जितने कष्ट होते हैं-जितने अनर्थ होते हैं, वे सब उस सद्बुद्धिके नहीं होनेसे ही होते हैं। और संसारमें जितने कल्याण हैं-नितने सुख हैं, वे सब सद्बुद्धिके ही अधिकारमें हैं। जो महात्मा सद्बुद्धिके प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करते हैं, वे ही वास्तवमें सर्वज्ञ भगवान्की आराधना करते हैं, दूसरे नहीं। हम सरीखोंका यह सब वचनप्रपंच भी तुम निश्चय समझ लो कि, उस सद्बुद्धिके प्राप्त करनेके लिये ही है। जो पुरुष सदबुद्धिरहित हैं, उन्हें व्यवहारसे ज्ञानादि भले ही प्राप्त हो जावें, परन्तु वे ज्ञानहीन पुरुपोंसे किसी प्रकार अच्छे नहीं कहला सकते । क्योंकि अज्ञानियोंके समान वे भी स्वकार्य अर्थात् आत्मकल्याण नहीं कर सकते हैं। अधिक कहनेसे क्या, जो पुरुप सवुद्धिरहित हैं, उनमें और पशुओंमें कुछ भी अन्तर नहीं है। इसलिये यदि तू सुख चाहता है और दुःखोंसे डरता है, तो हम जो तुझको सद्बुद्धि देते हैं, उसको प्रयत्नपूर्वक रख-उसका आदर कर। सद्बुद्धिका आदर करनेसे समझा जावेगा कि, तूने हमारे वचनोंकी पालना की, तीन भुवनके स्वामी सर्वज्ञभगवानको अच्छी तरहसे माना, हमको संतुष्ट