SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७९ देता हूं। परन्तु तुझे जो वह कहेगी, वही करना पड़ेगा।" भिखारीने जब यह बात स्वीकार की, तत्र धर्मबोधकरने उसे एक सदबुद्धि नामकी असाधारण परिचारिका वा दासी सोंप दी। इससे उसकी जो अपथ्यसेवनमें लंपटता रहती थी, वह नष्ट हो गई, रोग हलके हो गये और उनके विकार प्रायः मिट गये । उसके शरीरमें कुछ मुखकी झलक आई और आनन्दकी वृद्धि हुई । यह विषय जीवके सम्बन्धमें भी समानरूपसे घटित होता है । यथा जैसे अन्धा पुरुष दौड़ते समय भीत स्तम्भ आदिसे ठोकर खाकर वेदनासे विहल हो जाता हैं और फिर किसी दूसरे पुरुषको अपनी चोटका कर बतलाता है, उसी प्रकारसे यह जीव भी गुरु जिन्हें रोक देते है, उन आचरणोंको करके जब कष्ट पाता है, तत्र गुल्महारानका उमके हृदयमें विश्वास जम जाता है और वह अपने अनेक प्रकारके कष्ट उन्हें सुनाता है। हे भगवन् ! जब मैं आपके रोक देनेसे चोरीका धन नहीं लेता हूं, विरुद्धराज्यातिक्रम नहीं करता है, वेश्याआदि दुराचारिणी स्त्रियोंके यहां नहीं जाता हूं. और भी जो अनेक प्रकारके धर्मविरुद्ध तथा लोकविरुद्ध कार्य हैं, उन्हें नहीं करता हूं और महान् आरंभ और परिग्रहमें रंजायमान नहीं होता हूं, तब लोग मुझे साधु ( भला मनुप्य) कहकर सत्कार करते हैं, विश्वास करते हैं, और मेरी प्रशंसा करते हैं। उस समय शरीरके परिश्रमसे जो दुःख होता है वह मुझे जान ही नहीं पड़ता है, चित्त स्वस्थ होता है और इस विचारसे बहुत आनन्द होता है कि धर्म इस प्रकारका आचरण करनेवाले प्राणियोंको अच्छी गतिमें पहुंचा देता है। परन्तु जब आप मुझे रोकते नहीं हैं अथवा रोकते हैं, तो मैं उसकी परवाह न करके धन विपयादिमें अतिशय आसक्ति
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy