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१७१ . क्तिसे उन भगवानको निरन्तर स्थापित करके जो कि अचिन्तनीय पराक्रमके कारण सारे दोपोंका शोषण कर सकते हैं देशविरतिको (श्रावकधर्मको) ही धारण कर और सदा ही ज्ञान दर्शन और चारित्रको जो कि उत्तरोत्तर क्रमसे विशिष्ट, विशिष्टतर और विशिष्ट तम हैं, यत्नपूर्वक सेवन कर । ऐसा करनेसे तेरे रागादि रोगोंका उपशम हो जायगा-अन्य प्रकारसे नहीं।"
इस प्रकारका उपदेश देनेमें तत्पर रहनेवाली जो ज्ञानवान् धर्मगुरुओंकी इस जीवपर दया है, वास्तवमें उसीको इसका पालन करनेवाली-परिचारिका दया समझना चाहिये।
इसके पश्चात् यह जीव गुरुमहारानके वचनोंको मानता है, मैं यावजीव ऐसा ही करूंगा इस प्रकार निश्चय करता है, देश. विरतोंकी पालन करता हुआ कुछ समयतक उक्त शासनमन्दिरमें रहता है और उस समय भिक्षाके आश्रयभूत ठीकरके समान अपने विषय कुटुम्बादिकके आधारभूत जीवितन्यकी ( जीवनकी) रक्षा करता है। इस तरह जीवके वहां रहते समय आगे जो वृतान्त हुआ उसे कहते हैं___ कथानकमें कहा है कि, " वह तद्दया नामकी परिचारिका निप्पुण्यकको वे तीनों औषधियां रात दिन देती है, परन्तु उसे तो केवल वह कुभोजन ही अच्छा लगता है। उसीमें उसकी मूर्छा है इसलिये उन औषधिरूप पदार्थोंका वह कुछ भी आदर नहीं करता है।" सो इस जीवके विषयमें ऐसा ही समझना चाहिये । क्योंकि यद्यपि गुरु महाराजकी दया इसे निरन्तर ही ज्ञानदर्शनादि प्रदान करती है, परन्तु कर्मोंकी परतंत्रतासे धनादि विपयोंमें मोहित रहकर. यह उन्हें बहुत नहीं मानता है अर्थात् ज्ञान दर्शनादिमें इसकी आदरवुद्धि नहीं रहती है।