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________________ वार ) जिसका कि राजराजेश्वरने पहले उपदेश किया था, समझाया । उससे यह भी कहा कि, "हे भद्र ! तू कष्टसाध्य ( कठिनाईसे अच्छा होने योग्य ) रोगी है । इसलिये विना बड़े भारी प्रयत्नके तेरे रोग उपशान्त हो जायेंगे-आराम हो जायेंगे, ऐसा नहीं दिखता है । इसलिये अब तू इस राजमन्दिरमें यत्नपूर्वक ठहर और जो समस्त रोगोंको नाश करने योग्य अतुल पराक्रमको धारण करते हैं, उन राजराजेश्वरका निरन्तर ध्यान करते हुए तीनों औषधियोंका रातदिन सेवन कर । यह तदया नामकी दासी तेरी परिचारिका होकर रहेगी ! " भिखारीने सब कुछ स्वीकार कर लिया और तदनुसार वह अपने भिक्षाके ठीकरेको किसी एक स्थानमें रखकर उसकी रक्षा करता हुआ कुछ समय तक उस राजमन्दिरमें ही रहा । इन सब बातोंकी योजना जीवके विषयमें इस प्रकारसे करना चाहिये:. जब यह पहिले कहे अनुसार अपना अभिप्राय गुल्महाराजले कह देता है और उनसे पूछता है कि, अब मैं क्या कलं, तब वे दया करके पहिली कही हुई सब बातें फिरसे कहते हैं और तत्पश्चात् उसको ऐसा पक्का बनानेके लिये कि जिससे कालान्तरमें भी वह आचारभ्रष्ट न हो जाय धर्मसामग्रीकी अतिशय दुर्लभता दिखलाते हुए, रागादि भावरोगोंकी अतिशय प्रबलता वर्णन करते हुए और अपनी परतंत्रता प्रगट करते हुए कि हम इस विषयमें स्वतंत्र नहीं हैं आज्ञासे काम करते हैं; कहते हैं कि-" हे भद्र ! जैसी सामग्री तुझे प्राप्त हुई है, वैसी किसी अभागी वा अधन्य प्राणीको कभी नहीं मिल सकती है । और हन अपात्रके विषयमें कभी परिश्रम भी नहीं करते हैं। क्योंकि भगवानकी यह आज्ञा है कि, जो जीव
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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