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________________ स्वस्थतारूप प्रशमसुखकी वृद्धि होती है, अच्छी भावनाओंसे मन प्रसन्न होता है और उसके देनेवाले गुरुओंपर इस भावनासे कि "ये मेरे बड़े उपकारी है " भक्ति उत्पन्न होती है। उस समय यह जीव कहता है कि, "हे भगवन् ! आप ही मेरे नाथ हैं। क्योंकि आपने अपनी सामर्थसे मुझे जो कि बुरी सारहीन लड़कीके समान आतिशय अकर्मण्य (निकम्मा) था, कर्मण्यताको प्राप्त करके गुणोंका पात्र बना दिया है।" • आगे धर्मबोधकरने भिखारीको विठाकर मधुर वचनोंसे उसके चित्तको आल्हादित करते हुए राजराजेश्वरके गुणोंका वर्णन किया, 'हम उनके सेवक हैं। यह प्रगट किया और उसे भी राजाका सेवकपना स्वीकार करा दिया। फिर उसके हृदयमें राजाके विशेप गुणोंके जाननेका कुतूहल उत्पन्न किया, उनके जाननेके लिये व्याधियोंका क्षीण होना कारण बतलाया, व्याधियोंके क्षीण होनेके लिये पूर्वोक्त तीर्थजलादि तीनों औषधियां कारण वतलाई, क्षण क्षणमें उन औषधियोंके सेवन करनेका उपदेश दिया, उनके वारवार सेवन करनेसे राजराजेश्वरकी आराधना होती है और उनकी आराधनासे उनके ही समान महाराज्य प्राप्त होता है ऐसा प्रतिपादन किया । धर्मगुरु वा धर्माचार्य भी ज्ञानदर्शनसम्पन्न और देशविरतिके धारण करनेवाले जीवको बहुत ही उत्कृष्ट स्थिरता प्राप्त करानेके लिये इसी प्रकारके सब आचरण करते हैं। वे जीवसे कहते हैं कि, " हे भद्र ! तू ने जो यह कहा कि, 'तुम ही मेरे नाथ हो, ' सो तुझ सरीखेके लिये तो यह युक्त ही है । परन्तु साधारण रीतिसे ऐसा नहीं कहना चाहिये । क्योंकि तेरे और हमारे सबहीके परमात्मा सर्वज्ञभगवान् परमनाथ हैं और
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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