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अपना परमान्न इसे दे देना चाहिये। पीछे जब यह इसके गुण जान लेगा, तब स्वयं अपना कुभोजन फेंक देगा ।" ऐसा निश्चय करके उसने वह खीरका भोजन दे दिया और भिखारी उसे खा गया । उसके खानेसे निष्पुण्यककी भूख शान्त हो गई, रोग क्षीण हो गये, और पहले अंजन तथा जलसे जो सुख हुआ था, उससे बहुत अधिक सुखं हुआ, मन प्रसन्न हुआ और भोजन देनेवाले पुरुषमें भक्ति हो गई जिससे वह बोला- "मुझे भाग्यहीनपर भी आपने ऐसी दया की है, इसलिये आप मेरे नाथ हैं ।"
धर्मगुरु भी इसी प्रकारसे जब देखते हैं कि, यह जीव हटके कारण धनविषयादि नहीं छोड़ सकता है, तब विचारते हैं कि, यह सर्वविरति ( महाव्रत ) नहीं ग्रहण कर सकता है, इसलिये अभी इसे देशविरति ( अणुव्रत ) ही ग्रहण करा दो। जब यह देशविरतिकी पालना करेगा, तत्र उससे विशेष गुणोंको पाकर स्वयं ही सर्वसंग (परिग्रह ) का त्याग कर देगा। ऐसा विचार कर वे उसे देशविरति (अणुव्रत ) ग्रहण करा देते हैं ।
यहां उपदेश देनेके क्रमका निरूपण करते हैं: - पहले प्रयत्नपूर्वक सर्वविरतिका (महाव्रतं ) उपदेश देना चाहिये । पश्चात् यदि जीव उसके धारण करनेमें सर्वथा पराङ्मुखं हो, अर्थात् सर्वविरंति नहीं धारण करना चाहता हो, तो देशविरतिका निरूपण करना चाहिये 'वा देना चाहिये । यदि सबसे पहले देशविरतिका उपदेश दिया जावेगा, तो यह जीव उसीमें रक्तं हो जायगा और उपदेशक साधुकी सूक्ष्मप्राणातिपातांदि पापोंमें अनुमोदन समझी जावेगी । ( इसका अभिप्राय यह है किं, मुनिजनं पापोंके सर्वथा त्याग करनेका उपदेश देते हैं, परन्तु जब लोग सर्वथा त्याग नहीं कर
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