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रहा । अर्थात् मिथ्यात्वकर्मकी कितनी ही प्रकृति ऐसी हैं, कि उनका विपाक तो नहीं भोगना पड़ता, परन्तु प्रदेशानुभव होता है, सो जीवकी उक्त अवस्थामें मिथ्यात्वका क्षय और उपशम होकर उसका प्रदेशानुभव होता रहा । यह मिथ्यात्वरूपी . महा. उन्माद अभीतक सर्वथा नष्ट नहीं हुआ है-नष्टप्राय हुआ है। क्योंकि सम्यग्दर्शनके प्राप्त होनेपर शेष सारे ही कर्म जो कि रोगरूप हैं, सूक्ष्म हो जाते हैं। और इससे जीवको सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेसे अन्य रोग भी हलके हो गये, ऐसा कहा है । और जिस तरह वह तीर्थजल शीतल था, तथा उससे वह भिखारी स्वस्थचित्त हो गया था, उसी प्रकारसे यह सम्यग्दर्शनपरिणाम चराचर जीवोंकी दुःखरूप दाहको मिटा देता है। इस कारण अत्यन्त शीतल है, और उसको प्राप्त करके यह जीव दुःखदाहसे रहित होकर स्वस्थचित्त जान पड़ता है । . . . . . . . .
तीर्थनलं पीकर जब निष्पुण्यक स्वस्थचित्त हुआ तवं सोचने लगा कि, "यह पुरुष मुझपर अतिशयं स्नेह रखता है और महानुभाव है अर्थात् बहुत ऊंचे विचारोंवाला है, परन्तु मुझ मूर्खने पहले समझा था कि, यह ठग है और इस लोम दिखलानेके प्रपंचसे. मेरा भोजन छीन लेगा । इसलिये मुझ. दुष्टचित्तको धिक्कार है। यदि यह मेरी भलाई करनेमें तत्पर . न होता, तो अंजन आंजकर. मेरी दृष्टिको क्यों अच्छी करता ? और शीतल जल : पिलाकर क्यों मुझे स्वस्थ वा शान्त करता ? यह मुझसे बदलेमें अपनी कुछ भलाई नहीं चाहता है ! इसकी तो- महानुभांवता, ही ऐसी है. कि, वह इसे मेरी मलाई करनेमें तत्पर करती है । " ऐसा जो: पहले दरिद्रीके वर्णनमें कहा गया है, सो जीवके विषयमें भी घटित होता है। क्योंकि. सम्यग्द