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१४० काम उनके चाहनेवाले पुरुपोंको भी नहीं मिल सकते हैं, परन्तु धर्म जिनके पास होता है, उन्हें ये अर्थ और काम वे नहीं चाहते हैं, तो भी आप ही आप आकर मिल जाते हैं । अतएव जिन पुरुषोंको अर्थ और कामके सम्पादन करनेकी इच्छा हो, उन्हें यथार्थमें धर्म ही करना चाहिये । इस तरह धर्म ही प्रधान पुरुषार्थ है । यद्यपि अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखस्वरूप जीवका अपने स्वरूपमें स्थिर करनेवाला जो चौथा मोक्षपुरुषार्थ है, वह ही सारे क्लेशोंका नाश करानेवाला तथा स्वाभाविक और स्वाधीन आनन्दमय होता है, इसलिये प्रधान पुरुषार्थ है; परन्तु वह धर्मका कार्य है अर्थात् धर्मकारण है और मोक्ष कार्य है; इसलिये उसका प्रधानतासे वर्णन करनेपर भी वास्तवमें जो उसका प्राप्त करानेवाला है, वह धर्म ही प्रधान पुरुषार्थ है, ऐसा सिद्ध होता है । भगवान् सर्वज्ञदेवने भी कहा है किः-जो लोग धन चाहते हैं, धर्म उनके लिये धनका देनेवाला है, जो काम चाहते हैं, उनके लिये सब प्रकारके कामका (इन्द्रियोंके विषयोंका ) देनेवाला है और जो मोक्ष चाहते हैं, उन्हें क्रम क्रमसे मोक्षका भी प्राप्त करा, देनेवाला है । अतएव हम कहते हैं कि धर्मकी अपेक्षा अन्य कोई भी पुरुषार्थ मुख्य नहीं है।
धर्माख्यः पुरुषार्थोऽयं प्रधान इति गम्यते ।
पापग्रस्तं पशोस्तुल्यं धिग्धर्मरहितं नरम् ॥ अर्थात्-यह धर्म नामका पुरुषार्थ ही सबसे प्रधान जान पड़ता है। जो लोग पापोंसे ग्रसित हैं, और पशुओंके समान धर्मरहित हैं, उन्हें धिक्कार है।"
गुरुमहाराजका यह उपदेश सुनकर इस जीवने कहाः- "हे भगवन् ! ये अर्थ और काम पुरुषार्थ तो जिनका कि आप पहले.