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एकसा पुरुषत्व होनेपर और एक बराबर हाथ पाँव नाक कान आदि अवयव होनेपर भी हम देखते हैं कि, एक पुरुष दाता है और दूसरा याचक-भिखारी है, एक राजा है और दूसरा पयादा है, एक उपमारहित शब्दादि विपयोंको भोगनेवाला है और दूसरा अपने कठिनाईसे भरे जाननेवाले पेटरूपी गड़ेको भी नहीं भर सकता है, एक पालनेवाला है और दूसरा पलता है; इत्यादि जितने अन्तर दिखलाई देते हैं, वे सब धन महाराज ही अपने रहने और न रहनेसे करते हैं। अतएव सत्र पुरुषार्थोमें धन ही प्रधान पुरुषार्थ है । और इसी लिये कहा है:
अर्थास्यः पुरुषार्थोऽयं प्रधानः प्रतिभासते॥
तृणादपि लघु लोके धिगर्थरहितं नरम् ॥ अर्थात्-यह अर्थ (धन) नामका पुरुषार्थ ही सबसे प्रधान जान पड़ता है । इस संसारमें जिसके पास धन नहीं है, वह एक तिनफेसे मी हलका है । उसको धिकार है।" ___ आचार्य महाराजके मुखसे निकली हुई यह अर्थ पुरुषार्थकी प्रशंसा सुनकर यह जीव चिन्तवन करने लगा कि, 'वाह ! बहुत अच्छे प्रस्तावका कथन करना प्रारंभ किया है। और फिर ध्यान लगाकर सुनने लगा, सुनकर समझने लगा, और समझ करके यह सूचित करनेके लिये कि 'मैं समझ गया हूं' गर्दन हिलाने लगा, आंखें फाड़ने लगा, मुखको विकसित करने लगा अर्थात् मुसकराने लगा, और 'अच्छा कहा !' 'अच्छा कहा !' इस प्रकार धीरे २ कहने लगा । इन चिन्होंसे ज्ञानवान् गुरु महाराजने यह जान लिया कि, इसे व्याख्यान सुननेका कौतूहल उत्पन्न हो गया है और इसलिये उन्होंने अतिशय आदर वा प्रेमके साथ अपना व्याख्यान प्रारंभ