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१२७ अपनी बुद्धिसे उसके सुलटानेका उपाय करते हैं। वह इस तरहसे कि:-कभी मन्दिर वा वस्तिकासे वाहिर किसी स्थानमें विना समयके जाते आते मिल जानेसे उसके साथ प्रियसंभाषण करते हैं, हम तुम्हारे हितचाहनेवाले हैं, ऐसी बुद्धि प्रदर्शित करते हैं, सरलभावोंको प्रगट करते हैं, इस प्रकारका विश्वास उत्पन्न कराते हैं कि हम ठग नहीं हैं
और फिर उसके भावोंको लक्ष्य करके किसी दूसरे पुरुष से ( अन्योक्तिरूपसे) कहते हैं कि, हे भद्र | तू साधुओंकी वस्तिकामें क्यों नहीं आता है ? अपना हित क्यों नहीं करता है ? इस मनुष्य जन्मको क्यों व्यर्थ खोये देता है? क्या तू शुभ और अशुभमें अर्थात् पुण्य और पापमें क्या अन्तर है, यह नहीं जानता है ? पशु भावका अनुभव क्यों कर रहा है-अर्थात् इस तरह पशुओंके समान विना विवेकके अपना जीवन क्यों व्यतीत करता है? हम वारंवार समझाते हैं कि, तेरे लिये यही (उपदेश) पथ्य ( हितकारी) है। यह सब सलाईपर अंजन लगानेके समान समझना चाहिये। यहां उपदेशरूप कारणमें सम्यग्ज्ञानरूप कार्यका उपचार किया गया है। अभिप्राय यह है कि, यथार्थमें सम्यग्ज्ञानरूप अंजन पथ्य है, परन्तु उपदेश उसका कारण है, इसलिये उसको भी पथ्य कह दिया है।
गुरुमहाराजका ऊपर कहा उपदेश सुनकर यह संसारीजीव आठप्रकारके उत्तर (जवाब) सोचकर वोला:-“हे श्रमण ! १ मुझे अवकाश बिलकुल नहीं मिलता है, २ भगवान्के समीप मुझसे नहीं आया जाता है, ३ जिन्हें किसी प्रकारका व्यापार नहीं है अर्थात् जो निठल्ले रहते हैं, उन्हें धर्मकी चिन्ता होती है, ४ मेरे जैसे यदि घरसे कहीं अन्यत्र आया जाया करें, तो मेरा कुटुम्ब ही भूखे मर जायघरके जो हजारों काम हैं, उनमेंसे एक भी नहीं चले, ६ व्यापार
उसका कारण है,
कहा उपदेश सुनकर श्रमण ! १ मुझे अवका