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चाहिये | जीव अजीव आदि तत्त्वोंमें श्रद्धान करानेका कारण होनेसे यह तत्त्वप्रीतिकर (तत्त्वोंमें प्रीति अर्थात् विश्वास करानेवाला ) कहलाता है । यह (सम्यग्दर्शन) उत्पन्न होनेके समय सत्र कर्मोकी स्थिति केवल अन्तःकोडाकोड़ी सागरकी ( एक कोड़ाकोड़ी सागरसे कुछ कमकी) कर देता है और उत्पन्न हो चुकनेपर उस स्थितिको प्रत्येक क्षणमें और और कम करता जाता है । इससे इसे समस्त रोगोंका क्षीण करनेवाला समझना चाहिये । क्योंकि यहां कमोको रोगों की उपमा दी गई है । और यही सम्यग्दर्शन दृष्टिके समान ज्ञानको ज्योंके त्यों पदार्थोंके ग्रहण करनेमें चतुर कर देता है अर्थात् सम्यग्दर्शनके कारण ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है । और यही महा उन्मादके समान मिथ्यात्वका नाश करता है | चारित्रको परमान्न समझना चाहिये | सदनुष्ठान, धर्म, सामायिक और व्रत आदि सब इसीके पर्यायवाची नाम हैं । यह चारित्र ही मोक्षरूप महाकल्याणको प्राप्त करानेवाला है, इसलिये महाकल्याणक कहलाता है। यही रागादि बडी २ भारी व्याधियों को जड़ से मिटा देता है । यही रूप, पुष्टि, धीरज, वल, मनकी प्रसन्नता, और्जित्य, आयुकी स्थिरता, और पराक्रम इनके समान आत्माके सारे गुणों को प्रगट क - रता है। क्योंकि इस जीवमें रहनेवाला चारित्र धैर्यका उत्पादक, उदारताका कारण, गंभीरताकी खानि, शान्तिताकी मूर्ति, वैराग्यका स्वरूप, पराक्रमकी बढ़तीका मुख्य कारण, निर्द्वन्द्वताका (निश्चिन्तताका ) सहारा, चित्तकी निर्वृत्तिका मुख्यस्थान और दया क्षमादि रत्नों के उपजने की मूमि है और यही अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्त - मुखसे परिपूर्ण स्थानको जो कि कभी नाश नहीं होता है, जिसमेंसे कभी कुछ कम नहीं होता है, और जो बाधारहित है, प्राप्त कराता है, अतएव अजर अमरपना भी इससे प्राप्त होता है, ऐसा कहा है ।