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१२२ सुनाना चाहिये । इस प्रकार कुभोजनके सदृश धन विषय स्त्री आदिमें मोहित और उनकी रखवाली करनेमें तत्पर रहनेवाला यह जीव महामोहके वशवर्ती होकर सदुपदेश देनेवाले गुरुओंको ठग समझकर रौद्रध्यान करने लगता है। उस समय धर्माचार्य महाराज इसे ज्ञानचेतनारहित काठके गढ़े हुए खड़े खंभेके समान देखते हैं।
और इसलिये उनकी दया सुन्दर परमान्नरूप सद्धर्माचरण करनेका उपदेश देती है परन्तु यह बेचारा जीव उसे नहीं जानता है। ज्ञानियोंके लिये इससे अधिक आश्चर्यकारक विषय और क्या होगा कि, यह जीव महानरकमें डालनेवाले धन विपयादिकोंमें तो लुब्ध होता है, और सद्गुरूकी दयासे पाये हुए और अनन्त सुखमय मोक्षके देनेवाले सदनुष्ठानोंकी अर्थात् अच्छे आचरणोंकी अवहेलना करता है। __ आगे कहा है कि:-"धर्मबोधकरने ऐसा असंभव वृत्तान्त प्रत्यक्ष देखकर सोचा कि, यह भिखारी इस परमानको जो कि आदरसे दिया जाता है, क्यों नहीं लेता है ? इसका आत्मा पापसे हता गया है, इसलिये निश्चयपूर्वक जान पड़ता है कि, यह भोजन इसके योग्य ही नहीं है।" जीवके विषयमें भी यह सब इस प्रकारसे बरावर घटित होता है किः-ऊपर कहे अनुसार विस्तारयुक्त धर्मोपदेशसे अथवा दूसरे किसी कारणसे भी जब सुधर्मगुरुं इस जीवको भद्रभावोंसे भ्रष्ट तथा विपरीत आचरण करनेवाला देखते हैं, तब उनके हृदयमें इस प्रकारके भाव होते हैं कि, यह जिनेन्द्रदेवके धर्मको धारण करनेका पात्र नहीं है, क्योंकि इसका कल्याण होनेवाला नहीं है। अच्छा होनहार नहीं हैं-अच्छी गतिमें जानेके योग्य नहीं है, क्योंकि इसे कुगतिमें जाना है। धर्मात्माओंके द्वारा संस्कारित होनेके योग्य नहीं है, क्योंकि इसे बड़े बुरे २ विकल्प उठा करते हैं। अतएव इस मोही जीवके विषयमें मेरा परिश्रम करना व्यर्थ है।