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________________ (जैनसाधु ) तब ही तक अच्छे हैं, जब तक इनके पास नहीं गये हैं और जबतक इनके वशमें नहीं हुए हैं । वशवर्ती भोले जीवोंको तो ये मायावी श्रद्धाल समझकर नाना प्रकारकी बातोंकी रचनासे ठगलेते हैं । अतएव ये मेरी सारी सम्पत्तिको हर लेंगे, इसमें अब मुझे कुछ भी सन्देह नहीं रहा है। तो अब मुझे पहले ही पहिल मिले हुए इन श्रमण महात्माके साथ क्या करना चाहिये ? क्या कुछ उत्तर दिये विना ही मैं यहांसे उठकर चला जाऊं ? अथवा साफ कह दूं कि, मुझमें धर्म धारण करनेकी शक्ति नहीं है? अथवा ऐसा उत्तर दे दूं कि, मेरा सारा धन चौरादि हरण कर ले गये हैं-मेरे पास अब कुछ नहीं रहा है, इससे पात्रोंको कुछ नहीं दे सकता हूं। अथवा ऐसा कहकर इसे टाल दूं कि, आपके धर्मानुष्ठानोंकी मुझे आवश्यकता नहीं है, इसलिये इस विषयमें अब आपको मुझसे कुछ भी नहीं कहना चाहिये । अथवा विना समयके वेमौके तुमने यह बात कही है, यह बतलानेके लिये क्रोधसूत्रक भौहें चढा लं? न जाने यह श्रमण मेरे इन वचनोंपर ध्यान देकर अपने ठगाईके बुरे अभिप्रायोको कैसा छोड़ता है और कैसे मुझे मुक्त करता है।" ___ यह वेचारा जीव गहरी मूर्खताके कारण नहीं जानता है कि, वे ज्ञानवान् धर्माचार्य संसारके समस्त पदार्थीको तुपकी (चावलके ऊपरकी मुसीकी) मुट्ठीके समान सारहीन जानते हैं । उनका अन्तःकरण अतुल संतोपामृतसे तृप्त रहता है । वे विपके समान विषयोंके विपम विपाकको (बुरे परिणामको ) जानते हैं। उनका चित्त मोक्ष पानेके लिये अतिशय लवलीन रहता है, इसलिये वे सबको समान समझकर और अत्यन्त इच्छारहित होकर. सच्चे मार्गका उपदेश दिया करते हैं, और इन्द्रमें तथा भिखारीमें कुछ भी भेद नहीं
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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