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दुर्दशमास्त अभागी पुरुषोंके घरोंमें नहीं वरसना चाहते हैं । तो फिर ऐसा क्यों हुआ ! इस प्रकार उसके चित्तमें अतिशय आश्चर्य हुआ । " इन सत्र वातोंको सर्द्धर्माचार्यके ( गुरुके ) चित्तमें जो मेरे जीव - विषयक विचार हुए हैं, उनके साथ घटित करना चाहिये । सो इस प्रकारसे कि:- जो जीव पहली अवस्थामें गुरुकर्मपनेके का - रण समस्त पाप करता था, सत्र प्रकारके असभ्य तथा असत्य वचन बोलता था, और निरंतर रौद्रध्यान करता था, वही जीव जब एकाएक विना समयके ही किसी निमित्तसे शुभ सदाचारवाला, सत्य तथा प्रिय बोलनेवाला और अतिशय शांतचित्त हो जाता है, तब जो पूर्वापर विचार करनेमें चतुर होते हैं, उनके मनमें ऐसा वितर्क उठता ही है कि, मनवचनकायकी सुंदर और सद्धर्मकी साधनेवाली प्रवृत्ति भगवानकी कृपाके विना किसीको भी प्राप्त नहीं हो सकती है । और इसकी मनवचनकायकी प्रवृत्ति हमने इसी भवमें अतिशय मलिन देखी थी, परंतु अत्र शुभरूप हो गई है। इससे जान पड़ता है कि, इसपर भगवान्की कृपा हुई है । पर यह वात पूर्वापर . विरुद्ध ही सी जान पड़ती है। नहीं तो ऐसे पापी जीवपर भगवानकी दृष्टि कैसे पड़ जाती ? क्योंकि वह दृष्टि जिस किसी जीवपर पड़ती है, उसे अनायास ही मोक्ष प्राप्त कराके तीन भुवनका राजा बना देती है । अतएव इस जीवपर भगवानकी दृष्टिका पड़ना संभव नहीं हो सकता है । परन्तु इसमें जो शुभ मनवचनकायकी प्रवृत्तिका कुछ अंश दिखलाई देता है, वह भगवानकी दृष्टिपातके बिना संभव नहीं हो सकता है, इससे भगवानकी दृष्टि पड़नेका सद्भाव भी यहां निश्चित होता है । और इस तरहसे संदेहके दूर करनेका यह एक . कारण भी मिलता है । ऐसी दशामें जब कि बुद्धि सन्देह और निश्च