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________________ भावार्थ-अथवा सब लोगोंको दुखी करनेवाली अन्तरंगकी महासेनाको अर्थात् रागद्वेषादि विकारोंको जिसने लीला मात्र नष्ट कर दिया हो, ऐसे किसी महात्माको (चाहे वह ब्रह्मा विष्णु बुद्ध आदि कोई भी हो ) मैं नमस्कार करता हूं ॥६॥ जो सारे पदार्थोंके अपार विस्तारका विचार करते हैं-अर्थात् निरूपण करते हैं, और जो सारे पापोंका नाश करते हैं, उन .जिनेश्वरदेवके वचनोंकी अर्थात् जैनशास्त्रोंकी मैं वन्दना करता हूं ॥.७॥ जो अपने अचिन्तनीय तेनके कारण अपने मुखरूपी चन्द्रमाकी किरणोंसे न्याप्त रहनेपर भी फूले हुए कमलको हायमें धारण किये रहती है, उस देवताको अर्थात् वाग्देवी सरस्वतीको मैं नमस्कार करता हूं । अभिप्राय यह है कि, चन्द्रमाके होते हुए कमल कमी नहीं फूलता है, परन्तु सरस्वतीका ऐसा आश्चर्ययुक्त प्रकाश है कि, उससे उसके मुखचन्द्रकी किरणें पड़ते रहनेपर भी हाथका कमल फूला हुआ रहता है ।।८॥ और जिनके प्रभावसे मुझ सरीखे थोड़ी बुद्धि धारण करनेवाले भी दूसरोंको उपदेश देनेमें अथवा अन्य रचनेमें समर्थ हो जाते हैं, उन सद्गुरुओंको विशेषतासे नमस्कार हो ॥९॥ __ अथ प्रस्तावना। इस प्रकार नमस्कार करनेसे विन शान्त हो जानेके कारण अब मैं (ग्रन्यकर्ता) निराकुल होकर विविक्षित विषयका अर्थात् जिसे मैं कहना चाहता हूं, उसका प्रस्ताव करता हूं। . किसी शुभकर्मके उदयसे यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्यजन्म धारण करके तथा उसमें भी उत्तम कुल और उत्तम धर्मादि सामग्री पाकरके भव्य जीवोंको चाहिये कि, जो सब वस्तुएं छोड़ने योग्य हैं, उन्हें छोड़ देवें, जो करनेयोग्य कर्म हैं, उन्हें करें, जो प्रशंसा करने
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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