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गया है, दातारके घरसे वापिस चले जाते हैं उनके लिए दंड स्वरूप, प्रस्तुत किया हुआ और खास उन्हींके उद्देश्यसे तैयार किया हुआ इस प्रकारका भोजन कभी विधेय नहीं हो सकता। इस लिए दंड विधानका यह नियम.जैनधर्मकी नीतिके विरुद्ध है । साथ ही, इसका अनुष्ठान भी प्रायः अशक्य जान पड़ता है । बहुत संभव है कि इस दंड-विधानमें उस समयके भट्टारकोंका, जो अपने आपको मुनिमुख्य मानते थे और जिनका थोड़ा बहुत परिचय इस लेखमें आगे चलकर दिया जायगा, कुछ स्वार्थ छिपा हुआ हो । परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि, यह कथन जैनधर्मकी दृष्टिसे विरुद्ध अवश्य है । जैनधर्मके प्रायश्चित्त ग्रंथोंमें श्रीनन्दनन्याचार्यके शिष्य गुरुदासाचार्यका बनाया हुआ 'प्रायश्चित्तसमुच्चय ' नामका एक प्राचीन ग्रंथ है । इस ग्रंथकी चूलिकामें उक्त प्रकारके अपराधका प्रायश्चित्त सिर्फ ३२ उपवास प्रमाण लिखा है ।। यथाः
" सुतामातृभगिन्यादिचाण्डालीरभिगम्य च ।
अनुवीतोपवासानो द्वात्रिंशतमसंशयम् ॥ १५०॥ इससे मालूम होता है कि संहिताके उपर्युक्त दंड-विधानमें उपवासाँको छोड़कर शेष मुंडन, तीर्थयात्रा, महाभिषेक, पूजनके लिए भूम्यादि अर्पण
और मुनिभोजनादिका संपूर्ण विधान सिर्फ दो उपवासोंके स्थान में प्रस्तुत किया गया है। साथ ही, दंडक्षेत्र विस्तृत करनेके लिए इसमें कुछ अधिकार वृद्धि भी पाई जाती है । पाठक देखें और सोचें कि, यह सब कथन प्रायश्चित्तसमुच्चयके कथनसे कितना असंगत और विरुद्ध है। इस प्रकारका और भी बहुतसा कथन इस अध्यायमें पाया जाता है।
पद्यमें कुछ और गद्यमें कुछ । '. (६) साथ ही, इस अध्यायमें कुछ दंड विधान ऐसा भी देखनेमें आता है जो पद्यमें कुछ है तो गद्यमें कुछ और है । अर्थात् एक ही अपरा--