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(४२) हो सकता । क्योंकि प्रथम तो ऐसी हालतमें 'जब कि यह सारा ग्रंथ संस्कृतमें रचा गया है, इन अध्यायोंको प्राकृतमें रचकर ग्रंथकर्ताका डबल परिश्रम करना ही व्यर्थ मालूम होता है । दूसरे, बहुतसे ऐसे प्राकृत ग्रंथ भी देखनेमें आते हैं जिनके साथ उनका संस्कृत अर्थ लगाहुआ नहीं है।
और न भद्रबाहुके समयमें, जब कि प्राकृत भाषा अधिक प्रचलित थी, प्राकृत ग्रंथोंके साथ उनका संस्कृत अर्थ लगानेकी कोई जरूरत थी। तीसरे इस खंडके तीसरे अध्यायमें 'उवसंग्गहर' और 'तिजयपहत्त' नामके दो स्तोत्र प्राकृत भाषामें दिये हैं, जिनके साथमें उनका संस्कृत अर्थ नहीं है। चौथे, पहले खंडके पहले अध्यायमें कुछ संस्कृत के श्लोक भी ऐसे पाये जाते हैं जिनके साथ संस्कृतमें ही उनकी टीका अथवा टिप्पणी लगी हुई है । ऐसी हालतमें प्राकृतकी वजहसे संस्कृत अर्थका दिया जाना कोई अर्थ नहीं रखता । यदि कठिनता और सुगमताकी. दृष्टि से ऐसा कहा जाय तो वह भी ठीक नहीं बन सकता। क्योंकि इस दृष्टिसे उक्त चारों ही अध्यायोंकी प्राकृतमें कोई विशेष भेद नहीं है। रही संस्कृत श्लोकोंकी वात, सो वे इतने सुगम हैं कि उनपर टीका-टिप्पणीका करना ही व्यर्थ है । नमूनेके तौरपर यहाँ दो श्लोक टीका-टिप्पणीसहित उद्धृत किये जाते हैं:
१-पात्रान्तर्य दानेन भक्त्या भुंजत्त्वयं पुनः । . भोगभूमिकरः स्वर्गप्राप्तेस्त्तमकारणम् ॥ ८॥
टीका-पात्रानिति बहुवचनं मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका इति चतुर्विषपात्रप्रीत्यर्थ। एतेष्वन्यतम पूर्वमाहारादिदानेन संतर्य पुनः स्वयं भुजेत् । पात्रदान च भोगभूमिस्वर्गप्राप्तेश्त्तमकारणं ज्ञेयमित्यर्थः ।
१-२ ये दोनों स्तोत्र नेताम्वरोंक 'प्रतिक्रमणसूत्र' में भी पाये जाते हैं: परन्तु यहाँ पर उक्त प्रतिक्रमण सूत्रसे पहले स्तोत्रमें तीन और दूसरेमें एक, ऐसी चार गाथावें अधिक हैं।