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________________ (७) पंचमोपि स्वराख्यश्च पंचखंडैरियं मता। द्वादशसहस्रप्रमिता संहितेयं जिनोदिता ॥२॥ अन्तिम वक्तव्य अन्तिम खंडके अन्तमें होना चाहिए था; परन्तु यहाँपर तीसरे खंडके अन्तमें दिया है। चौथे पाँचवें खंडोंका कुछ पता नहीं, और न उनके सम्बंधमें इस विषयका कोई शब्द ही लिखा है। किसी ग्रंथमें तीन खंडोंके होनेपर ही उनका पूर्व, मध्यम और उत्तर इस प्रकारका विभाग ठीक हो सकता है, पाँच खंडोंकी हालतमें नहीं । पाँच खंडोंके होनेपर दूसरे खंडको 'मध्यम ' और तीसरेको 'उत्तरखंड' कहना ठीक नहीं बैठता । पहले और अन्तके खंडोंके वीचमें रहनेसे दूसरे संडको यदि 'मध्यमखंड ' कहा जाय तो इस दृष्टिसे तीसरे संडको भी 'मध्यमखंड ' कहना होगा, 'उत्तरखंड ' नहीं। परन्तु यहाँपर पद्यमें भी तीसरे खंडको, उसके दस अध्यायोंकी सूची देते हुए, 'उत्तरखंड' ही लिखा है । यथा ग्रहस्तुतिः प्रतिष्टां च मूलमंत्रर्षिपत्रिके। शास्तिचक्रे क्रियादीपे फलशान्ती दशोत्तरे ॥ ८॥ इसलिए खंडोंका यह विभाग समुचित प्रतीत नहीं होता । खंडोंके इस विभाग-सम्बंधमें एक बात और भी नोट किये जाने योग्य है और वह यह है कि इस ग्रंथमें पूर्व संडकी संधि देनेके पश्चात्, दूसरे खंडका प्रारंभ करते हुए, “अथ भद्रबाहु-संहितायां उत्तरखंडः प्रारभ्यते" यह वाक्य दिया है और इसके द्वारा दूसरे संडको 'उत्तरखंड ' सूचित किया है; परन्तु खंडके अन्तमें उसे वही 'मध्यमखंड ' लिखा है । हो सकता है कि ग्रंथकर्तीका ग्रंथमें पहले दो ही खंडोंके रखनेका विचार हो और इसी लिए दूसरा खंड शुरू करते हुए उसे 'उत्तरखंड' लिखा हो; परन्तु बादको दूसरा खंड लिखते हुए किसी समय वह विचार बदलकर तीसरे खंडकी जरूरत पैदा हुई हो और इस लिए अन्तमें
SR No.010628
Book TitleGranth Pariksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages127
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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