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उमास्वामि-श्रावकाचार ।
वनिका और विद्वज्जनवोधकको पूर्वानुसाररहित, निर्मूल और कपोलकल्पित बतलाया है । साथ ही यह भी लिखा है कि “ इन शास्त्रोंमें आगम-विरुद्ध कथन किया गया है; ये पूर्वापरविरुद्ध होनेसे अप्रमाण हैं, वाग्जाल हैं; भोले मनुष्योंको रंजायमान करें हैं; ज्ञानी जनोंके आदरणीय नहीं है, इत्यादि।" पं० सदासुसजीकी भाषावचनिकाके विषयमें खास तोरसे लिखा है कि, “ रत्नकरंड मूल तो प्रमाण है बहुरि देशभाषा अप्रमाण है । कारण पूर्वापरविरुद्ध, निन्दाबाहुल्य, आगमविरुद्ध, क्रमविरुद्ध, वृत्तिविरन्द्ध, सूत्राविरुद्ध, वार्तिकविरुद्ध कई दोपनिकरि मंडित है यात अप्रमाण, वाग्जाल है। " इन ग्रंथाम क्षेत्रपालपूजन, शासनदेवतापूजन, सकलीकरणविधान और प्रतिमाके चंदनचर्चन आदि कई बातोंका निषेध किया गया है, जलको अपवित्र बतलाया गया है, खड़े होकर पूजनका विधान किया गया है; इत्यादि कारणांसे ही शायद हलायुधजीने इन ग्रंथोंको अप्रमाण और आगमविरुद्ध ठहराया है। अस्तु; इन ग्रंथांकी प्रमाणाता या अप्रमाणताका विषय यहाँ विवेचनीय न होनेसे, इस विषयमें कुछ न लिखकर मैं. यह बतलादना जरूरी समझता हूँ कि हलायुधज के इस कथन और उल्लेखसे यह बात बिलकुल हल हो जाती है और इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि आपकी यह टीका 'रत्नकरंडश्रावकाचार' की (पं० सदासुखीकृत) भापावचनिका तथा 'विद्वज्जनबोधक' की रचनाके पीछे बनी है; तभी उसमें इन ग्रंथांका उल्लेख किया गया है। पं० सदासुखजीने रत्नकरंडश्रावकाचारकी उन भापावचनिका विक्रम सम्वत् १९२० की चैत्र कृष्ण १४ को बनाकर पूर्ण की है और 'विद्वज्जनबोधक' संधी पन्नालालजी दूणीवालोंके द्वारा जो उक्त पं० सदसुखजीके शिष्य थे, माघसुदी पंचमी संवत् १९३९ को वनकर समाप्त हुआ है । इसलिए हलायुधजीकी यह भाषार्टीका विक्रम संवत् १९३९ के बादकी बनी हुई निश्चित होती है।