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________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। क-श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमा शक्तिः। यत्रैते सप्त गुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ॥ १४-११९ ॥ यह श्लोक यशस्तिलकके आठवें आश्वासका है। ख-अह्नो मुखेवसाने च यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् । निशाभोजनदोषज्ञोऽभात्यसौ पुण्यभाजनम् ॥१४-८७॥ यह योगशास्त्रके तीसरे प्रकाशका ६३ वाँ पद्य है। ग-शाश्वतानंदरूपाय तमस्तोमैकभास्वते । ___ सर्वज्ञाय नमस्तमै कस्मैचित्परमात्मने ॥ ९-१॥ यह श्लोक विवेकविलासका आदिम मंगलाचरण है। श्रीसोमदेवसूरि विक्रमकी ११ वीं शतामें हुए हैं। उन्होंने विक्रम संवत् १०१६ ( शक संवत् ८८१ ) में यशस्तिलकको बनाकर समाप्त किया है । श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचंद्रजी राजा कुमारपालके समयमें अर्थात् विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमें (सं० १२२९ तक) विद्यमान थे आर श्वेताम्बर साधु श्रीजिनदत्तसूरि भी विक्रमी १३ वीं शताब्दी में हुए हैं। इन आचायोंके उपर्युक्त ग्रंथोंसे जब पद्य लिये गये हैं, तब साफ़ प्रकट है कि यह विवर्णाचार उनसे भी पीछे बना है और इस लिए श्रीमलिंपणाचार्यकृत 'महापुराण' की प्रशस्तिमें उल्लिखित मल्लिपेणक पिता चोथे श्रीजिनसेनसूरिका बनाया हुआ भी यह ग्रंथ नहीं हो सकता। क्योंकि मल्लिपणने शक संवत् ९६९ (वि. सं. ११०४) में 'महापुराणको' बनाकर समाप्त किया है। (७) इस ग्रंथके चौथे पर्वमें, एक स्थान पर 'सिद्धभक्तिविधान' का वर्णन करते हुए, दस पयोमें सिद्धोंकी स्तुति दी है । इस स्तुतिका पहला और अन्तका पद्य इस प्रकार है: “यस्यानुग्रहतो दुराग्रहपरित्यक्तादिरूपात्मनः, सट्रव्यं चिदचित्रिकालविषयं स्वैः स्वैरभीक्ष्णं गुणैः ॥
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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