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ग्रन्थ-परीक्षा।" "..
जिनसेनको बनाया हुआ नहीं. हो सकता। और न हरिवंशपुराणके कर्ता दूसरे जिनसेन या तीसरे जिनसेनका ही बनाया हुआ हो सकता है। क्योंकि हरिवंशपुराणके कर्ता श्रीजिनसेनाचार्य भगवजिनसेनके प्रायः समकालीन ही थे। उन्होंने हरिवंशपुराणको शक संवत् ७०५ (वि० सं०-८४०) में बनाकर समाप्त किया है । जब हरिवंशपुराणसे बहुत पीछे बननेके कारण यह ग्रंथ हरिवंशपुराणके कर्ताका बनाया हुआ नहीं हो सकता, तब यह स्वतः सिद्ध है कि हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिमें हरिवंशपुराणके कर्तासे पहले होनेवाले, जिन तीसरे जिनसेनका उल्लेख है उनका भी बनाया हुआ यह नहीं हो सकता। (२) ग्रन्थके चौथे पर्वमें एक पद्य इस प्रकार दिया है:
प्रापदैवं तव नुतिपदैजीवकेनोपदिष्टः। . पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम् ॥
का संदेहो यदुपलभते वासवश्रीप्रभुत्वम् ।
जल्पं जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कारचक्रम् ॥ १२७ ॥" • यह पर्व श्रीवादिराजसूरिविरचित 'एकीभाव' स्तोत्रका है । वहींसे उठाकर रक्खा गया है । वादिराजसूरि विक्रमकी ११ वीं शतब्दीमें, हुए हैं। उन्होंने शक संवत् ९४७ (वि. सं. १०८२ ) में 'पार्श्वनाथचरितकी रचना की है। इस लिए यह त्रिवर्णाचार उनसे पीछेका बना हुआ है और कदापि दो शताब्दी पहले होनेवाले भगवजिनसेनादिका बनाया हुआ नहीं हो सकता।
(३) इस ग्रंथमें अनेक स्थानों पर गोम्मटसारकी गाथायें भी पाई जाती हैं । १४ वे पर्वमें आई हुई गाथाओंमें से एक गाथा इस प्रकार है:
" एयंत बुद्धदरसी विवरीओ बंभतावसो विणओ। .. इंदविय संसयिदो मक्कडिओ चेव अण्णाणी ॥ १२॥ .