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________________ ग्रन्थ- परीक्षा | । . वोंमें भी क्रमशः गौ, स्त्री, बालक, सामान्य मनुष्य, अविरतसम्यग्दृष्टि, व्रती श्रावक और मुनिके घातसे उत्पन्न हुई पापकी मात्रा उत्तरोत्तर अधिक वर्णन की है । और इसीलिये प्रायश्चित्तसमुच्चयादि प्रायश्चित्तग्रंथों में भी इसी क्रमसे हिंसाका उत्तरोत्तर अधिक दंड विधान कहा गया है । कर्मप्रकृतियों के बन्धाधिकका प्ररूपण करनेवाले और 'तीव्रमंदज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ' इत्यादि सूत्रोंके द्वारा कर्मास्रवोंकी न्यूनाधिकता दर्शानेवाले सूत्रकार महोदयका ऐसा असमंजस वचन, कि एक फूलकी पंखडी तोड़नेका पाप मुनिहत्याके समान है, कदापि नहीं हो सकता । इसी प्रकारके और भी बहुतसे असमंजस और आगमविरुद्ध कथन इस ग्रंथमें पाए जाते हैं, जिन्हें इस समय छोड़ा जाता है। जरूरत होनेपर फिर कभी प्रगट किये जायँगे । जहांतक मैंने इस ग्रंथकी परीक्षा की है, मुझे ऐसा निश्चय होता है और इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता कि यह ग्रंथ सूत्रकार भगवान् उमास्वामि महाराजका बनाया हुआ नहीं है । और न किसी दूसरेही माननीय जैनाचार्यका बनाया हुआ है । ग्रंथके शब्दों और अर्थोपरसे, इस ग्रंथका बनानेवाला कोई मामूली, अदूरदर्शी और क्षुद्रहृदय व्यक्ति मालूम होता है । और यह ग्रंथ १६ वीं शताब्दीके बाद १७ वीं शताब्दीके अन्तमें या उससे भी कुछ कालबाद, उस वक्त बनाया जाकर भगवान् उमास्वामी के नामसे प्रगट किया गया है, जब कि तेरहपंथ की स्थापना हो चुकी थी और उसका प्राबल्यं बढ़ रहा था। यह ग्रंथ क्यों बनाया गया है ? इसका सूक्ष्म विवेचन फिर किसी लेखद्वारा, जरूरत होनेपर, प्रगट किया जायगा । परन्तु यहाँपर इतना बतला देना जरूरी है कि इस ग्रंथमें पूजनका एक खास अध्याय है और प्रायः उसी अध्यायकी इस ग्रंथ में प्रधानता मालूम होती है। शायद इसी - २४
SR No.010627
Book TitleGranth Pariksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1917
Total Pages123
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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