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________________ दर्शनसार अपने ग्रहण किये हुए पाषण्डोंके सदृश उसने और उसके अनुयायियोंने शास्त्रोंकी रचना की, उनका व्याख्यान किया और लोगोंमें उसी प्रकारके आचरणकी प्रवृत्ति चला दी । ७० । वे निर्ग्रन्थ मार्गको दुषित बतलाकर उसकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करने लगे . । ७१ । अब वह जो शान्ति आचार्यका जीव व्यन्तरदेव हुआ था. सो उपद्रव करने लगा और कहने लगा कि, तुम लोग जैनधर्मको पाकर मिथ्यात्व मार्ग पर मत चलो। ७२ । इससे उन सबको बढ़ा भय हुआ और वे उसकी सम्पूर्ण द्रव्योंसे संयुक्त अष्ट प्रकारकी पूजा करने लगे। वह जिनचन्द्रकी रची हुई या चलाई हुई उस व्यन्तरकी पूजा आज भी की जाती है। ७३ । आज भी वह वलिपूजा सबसे पहले उसके नामसे दी जाती है । वह श्वेताम्बर संघका पूज्य कुलदेव कहा जाता है । ७४ । यह मार्गभ्रष्ट श्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति कही। इससे आगे अज्ञान मिथ्यात्वका स्वरूप कहा जायगा । ७५ । __ भावसंग्रह विक्रमकी दशवीं शताब्दिका बना हुआ ग्रन्थ है, प्राचीन है, अतएव हमने उस परसे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिकी इस कथाको यहाँ उद्धृत कर देना उचित समझा। भट्टारक रत्ननन्दिने अपने भद्रबाहुचरित्रका अधिकाश इसी कथाको पल्लवित करके लिखा है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी क्थाका मूल यही है, परन्तु उन्होंने अपने ग्रन्थमें इस कथामें जो परिवर्तन किया है, वह बड़ा ही विलक्षण है। उनके परिवर्तन किये हुए कथाभागका संक्षिप्त स्वरूप यह है-"भद्रबाहु स्वामीकी भविष्यद्वाणी होने पर १२ हजार साधु उनके साथ दक्षिणकी ओर विहार कर गये, परन्तु रामल्य, स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र आदि मुनि श्रावकोंके आग्रहसे उज्जयिनीमें ही रह गये । कुछ ही समयमें घोर दुर्भिक्ष पडा और वे सब शिथिलाचारी हो गये। उधर दक्षिणमें भद्रबाहु स्वामीका
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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