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________________ दर्शनसार। रचितो दर्शनसारो हारो भव्यानां नवशते नवके । श्रीपार्श्वनाथगेहे सुविशुद्धे मावशुद्धदशम्याम् |॥ ५० ॥ अर्थ-श्रीदेवसेन गणिने माघ सुदी १० वि० संवत् ९०९ को चारानगरीमें निवास करते समय पार्श्वनाथ भगवानके मन्दिरमें पूर्वाचाय की बनाई हुई गाथाओंको एकत्र करके यह दर्शनसार नामका -ग्रन्थ बनाया, जो मव्यजीवोंके हृदयमें हारके समान शोमा देगा। -रूसउ तूसउ लोओ सञ्चं अक्ख्तयस्स साहुस्स ! किं जयभए साडी विवज्जियव्वा णरिदेण ॥ ५१ ॥ रुप्यतु तुप्यतु लोकः सत्यमाख्यातकस्य साधोः । किं यूकाभयेन शाटी विवर्जितव्या नरेन्द्रेण ॥५१॥ अर्थ-सत्य कहनेवाले साधुसे चाहे कोई रुष्ट हो और चाहे सन्तुष्ट हो । उसे इसकी परवा नहीं। क्या राजाको जूओंके भयसे वस्त्र पहनना छोड़ देना चाहिए ? क्भी नहीं। दर्शनसार-विवेचना। , इस ग्रन्थके रचयिता या संग्रहकर्ती श्रीमान् देवसेनसूरि है । भावसंग्रह नामका एक प्राकृत ग्रन्थ है, जो ९६० श्लोको पूर्ण हुआ है, जिसके मंगलाचरण और प्रशस्तिसे पता लगता है कि वह भी इन्हीं देवसेनसरिका बनाया हुआ है और वे विमलसेन गणिके शिष्य थे। यथा:मं०- पणमिय सुरसेणणुयं मुणिगणहरवंदियं महावीरें। वोच्छामि भावसंगहमिणमो भव्बपवाहह ॥१॥
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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