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________________ दर्शनसार। सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वं कथितं यत् जिनेन्द्रविम्वेषु । आत्मपरनिष्ठितेषु च ममत्वबुद्धया परिवसनम् ॥ ४१॥ एसो मम होउ गुरू अवरोणस्थित्ति चित्तपरियरणं । सगगुरुकुलाहिमाणो इयरेसु वि भंगकरणं च ॥४२॥ एष मम भवतु गुरुः अपरो नास्तीति चित्तपरिचलनम् । स्वकगुरुकुलाभिमान इतरेषु अपि भङ्गकरणं च ॥ ४२ ॥ अर्थ-उसने अपने और पराये प्रतिष्ठित किये हुए जिनबिम्बोंकी ममत्व बुद्धिद्वारा न्यूनाधिक भावसे पूजा-वन्दना करने मेरा गुरु यह है, दूसरा नहीं है, इस प्रकारके भाव रखने; अपने गुरुकुल (संघ) का आभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मानभंग करनेरूप सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वका उपदेश दिया। जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विवाहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥४३॥ यदि पद्मनन्दिनाथः सीमन्धरस्वामिदिव्यज्ञानेन । न विबोधति तर्हि श्रमणाः कथ सुमार्ग प्रजानन्ति ॥ ४३ ॥ अर्थ-विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थकर सीमन्धर स्वामीके समवसरणमें जाकर श्रीपद्मनन्दिनाथ या कुन्दकुन्द स्वामीने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वे बोध न देते, तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ? भूयबलिपुप्फयंता दक्खिणदेसे तहोत्तरे धम्म । जं भासंति मुर्णिदा तं तच्चं णिविवयप्पेण ॥४४॥
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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