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________________ दर्शनसार । __ अर्थ-उसके विचारानुसार बीजोंमें जीव नहीं हैं, मुनियोंको खड़े खड़े भोजन करनेकी विधि नहीं है, कोई वस्तु प्रासुक नहीं है । वह सावध भी नहीं मानता और गृहकल्पित अर्थको नहीं गिनता । कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो। महतो सीयलणीरे पावं पउरं स संजेदि ॥२७॥ कच्छं क्षेत्रं वसतिं वाणिज्यं कारयित्वा जीवन् । स्नात्वा शीतलनीरे पापं प्रचुरं स संचयति ॥ २७ ॥ ___अर्थ-कछार, खेत, वसतिका, और वाणिज्य आदि कराके जीवननिर्वाह करते हुए और शीतल जलमें स्नान करते हुए उसने प्रचुर पापका संग्रह किया । अर्थात उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावें, रोजगार करावें, बसतिका वनवावें और अप्रासुक जलमें स्नान करें तो कोई दोष नहीं है। पंचसए छवासे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो ॥२८॥ पञ्चशते पड़िशति विक्रमराजस्य मरणप्राप्तस्य । दक्षिणमथुराजातः द्राविडसंघो महाघोरः ॥ २८ ॥ अर्थ-विक्रमराजाकी मृत्युके ५२६ वर्ष बीतने पर दक्षिण मथुरा (मदुरा) नगरमें यह महामोहरूप द्राविडसंघ उत्पन्न हुआ। __ यापनीय संघकी उत्पत्ति । कल्लाणे वरणयरे संत्तसए पंच उत्तरे जादे । जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ॥२९॥ १ग प्रतिमें दुण्णि सए पंच उत्तरे' ऐसा पाठ है, जिसका अर्थ होता है, २०५ वर्ष ।
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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