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( ६२३ ) शिलालेखों में अंकित है और दूसरे अध्याय में तृतीय बौद्ध संगीति का वर्णन करते समय हम उसका कुछ उल्लेख कर चुके हैं।
अशोक ने बुद्ध-धर्म को जैसा समझा और जैसा उसका आचरण किया, वह कुछ प्रवजितों का ही धर्म नही था, बल्कि जीवन की पवित्रता पर आश्रित वह विस्तृत लोक-धर्म था, जिसका आचरण जोवन की प्रत्येक अवस्था में और प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है । अहिंसा, बड़ों का आदर, सत्य-भाषण, इन बातों को मिखाते हुए प्रियदर्शी राजा कभी थकता नही । माता-पिता की सेवा करना, मित्र, परिचित, सम्बन्धी, ब्राह्मण और श्रमणों का आदर करना, दास और भृत्यों के साथ सद्व्यवहार करना, यही सब अशोक की शिक्षाएँ थी। अल्पव्ययता और अल्पभाण्डता (कम सामान इकट्ठा करना) की उसने बड़ी प्रशंसा की है। आत्म-निरीक्षण को उसने धर्म का प्रमुख साधन माना है । बुद्ध के समान अशोक ने भी धर्म के आन्तरिक स्वरूप पर जोर दिया है । तत्कालीन लोकाचारों की एक सच्चे बुद्धिवादी के समान तुच्छता दिखाते हुए उसने कहा है-- "वीमारी में, निमंत्रण में, विवाह में, पुत्र-जन्म और यात्रा के प्रसंगों पर स्त्री-पुरुष वहुत मे मंगल-कार्य करते हैं, परन्तु से वे मंगल थोड़े फल के देने वाले होते है। किन्तु अहिंसा, दया, दान, गुरुजनों की पूजा इत्यादि धर्म के मंगल-कार्य अनन्तपूग्य उत्पन्न करते हैं।"४ अशोक ने धर्म-दान की बड़ी प्रशंसा की है। उसने कहा है कि सच्चा अनुष्ठान धर्म का अनुष्ठान है, सच्ची यात्रा धर्म की यात्रा है, सच्चा मंगलचार धर्म-मंगल है। वास्तव में धर्म (धम्म) शब्द को यहाँ अशोक ने बड़े व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है। __अशोक की शामन-नीति को जानने के लिये उसके अभिलेख बड़े सहायक है। कोई भी शासक अपनी आज्ञाएँ शिलालेखों पर खुदवा सकता है। किन्तु अगोक के अभिलेखों जैमा स्थायित्व, उनकी इतनी विश्वजनीनता, इतनी मार्मिकता, इतनी गम्भीर मच्चाई, विश्व-साहित्य में अन्यत्र कहीं नही देखी गई। वे
१, २. शिलालेख ३, ९ और ११ । ३. शिलालेख ३ । ४. शिलालेख ९ ५. देखिये शिलालेख ९ (गिरनार, धौली और जौगढ़ का पाठ); शिलालेख
११ भी; मिलाइये धप्मपद, 'सब्बदान' धम्मदानं जिनाति ।।