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( ५९८ ) हुई । नैतिक ध्वनि की प्रधानता के अतिरिक्त इन सब की एक बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने जातक, अर्थकथाओं और कुछ अंश तक 'महावंश आदि से पर्याप्त सामग्री ली है । पालि आख्यानों में 'रसवाहिनीं' का नाम अधिक प्रसिद्ध है। मौलिक रूप में यह सिंहली भाषा की रचना थी। महाविहारवासी रठ्ठपाल (राष्ट्रपाल) नामक स्थविर ने इसका प्रथम पालि रूपान्तर किया। बाद में प्रसिद्ध सिंहली भिक्षु वैदेह स्थविर (वेदेह थेर) ने इसको शुद्ध कर इसे नवीन रूप प्रदान किया । अतः ‘रसवाहिनी' का कर्तृत्व वैदेह स्थविर के नाम के साथ ही संबद्ध हो गया है। वैदेह स्थविर का काल निश्चित रूप से तेरहवीं शताब्दी ही माना जाता है ', यद्यपि कुछ विद्वान् उसे चौदहवीं शताब्दी मानने के भी पक्षपाती हैं। संभवतः तेरहवीं शताब्दी के अंतिम और चौदहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वे जीवित थे । वैदेह स्थविर का जन्म विप्रग्राम (विप्पगाम) के एक ब्राह्मग-वंश में हुआ था। बाद में उन्होंने बौद्धधर्म में प्रविष्ट होकर प्रव्रज्या ले ली थी। उनके गुरु प्रसिद्ध सिंहली भिक्षु आनन्द स्थविर थे, 'जो अरण्यायतन' (अरञायतन-अरण्यवासी) भी कहलाते थे । वैदेह स्थविर ने भी स्वयं अपने को 'वनवासी' संप्रदाय का अनुयायी बतलाया है । इन्हीं की रचना 'समन्तकूटवण्णना' नामक कविता भी है जिसमें वुद्ध के जीवन
और विशेषतः उसके तीन बार लंका-गमन तथा उनके चरण (श्रीपद) चिन्ह द्वारा अंकित समन्त-कूट पर्वत का भी वर्णन है । इस ग्रन्थ में ७९६ पालि वृत्त हैं। किन्तु इनकी अधिक प्रसिद्ध रचना 'रसवाहिनी' ही है। 'रसवाहिनी' १०३ आख्यानों का संग्रह है। इनमें प्रथम ४० के देश और परिस्थिति का चित्रण भारत (जम्बुद्वीप) में और शेष ६३ का लंका में किया गया है। कहानियाँ प्रायः गद्य में ही हैं, किन्तु बीच-बीच में कहीं कहीं गाथात्मक अंश का भी छिटका दिखाई देता है । भाषा की दृष्टि से यह उतनी सफल रचना नहीं
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१. गायगरःपालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ४३ पद-संकेत २; विटरनित्ताः
हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर-जिल्द दूसरी, पृष्ठ २२४ । २. देखिये विमलाचरण लाहा: हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६२५ ३. मललसेकर : दि पालि लिटरेचर ऑव सिलोन, पृष्ठ २१० । ४. सिंहली अनुवाद सहित सिंहली लिपि में धम्मानन्द और ज्ञाणिस्सर (ज्ञानेश्वर)
द्वारा सम्पादित, कोलम्बो, १८९० ।