________________
उनका विचारात्मक अंश अक्षुण्ण रखने में कवि को पर्याप्त सफलता मिली है। ग्रन्थ के आदि में कवि ने अपना नाम ब्रह्मचारी सोमपिय बताया है 'नामतो वुद्धसोमस्स पियस ब्रह्मचारिनो' । इनके विषय में अधिक कुछ ज्ञान हमें नहीं है, किन्तु यह निश्चित है कि ये सिंहली भिक्षु थे र इनका काल भी बारहवींतेरहवीं शताब्दी के आसपास ही होना चाहिए। पञ्चगतिदीपन'
११४ गाथाओं में उन पाँच गतियों या योनियों का वर्णन है जिन्हें प्राणी अपने भले या बुरे कायिक, वाचिक और मानसिक कर्मों के कारण प्राप्त करते है, यथा नरक-योनि, पशु-योनि भूत-प्रेतादिकी योनि, मनुष्य-योनि और देव-योनि । वर्णन अत्यन्त सरल और स्वाभाविक एवं प्रसादगुणनय होते हुए भी यह रचना अत्यन्त साधारण कोटि की ही मानी जायगी। स्वर्ग-नरक के वर्णन काव्य के अच्छे विपय बनाये ही नहीं जा सकते, उनमें नैतिक तत्त्व चाहे जितना भी गहरा हो। वास्तव में बुद्ध ने भी स्वर्ग के प्रलोभन या नरक के भयके कारण अपने नातिवाद का उपदेश नहीं दिया था। उनके नैतिक आदर्शवाद की यही तो एक विशेषता थी। वहाँ विशुद्धि का मार्ग अपने आप में एक आचरणीय वस्तु थी। ब्रह्मचर्य का क्या उद्देश्य होना चाहिए, इमे शास्ता ने अनेक बार स्पष्ट कर दिया था। किन्तु लोक-धर्म इस कब मुनता है ? वहाँ नो भय या पारितोषिक का प्रलोभन होना ही चाहिए । फलतः अशोक को ही हम अपनी जनता को स्वर्ग-प्राप्ति के उद्देश्य से शुभ-कर्म करने के लिए प्रेरणा करते हुए देखते है । यह नितान्त स्वाभाविक भी है। वुद्ध-मन्तव्य इससे बहुत अधिक ऊँचा था। उसे लोक-धर्म की भूमि पर ला कर अर्थात् लोक-विश्वासों का उममें समावेश कर, उसके नैतिक तत्त्व की व्याख्या का प्रारम्भ हा स्वयं सुत्त-पिटक के कुछ अंशों में ही देखते है। बाद में कुछ जातकों और पेंतवत्थु जैसे ग्रन्थों में तो वह बहुत ही स्फुट हो गया है । महायान-परम्परा में जिस विस्तार के साथ स्वर्ग-नरक के वर्णन मिलते हैं, वह तो निश्चय ही एक आश्चर्य की वस्तु है । निश्चय ही इस प्रकार के वौद्धवर्णनों में चाहे वे स्थविरवादियों के हों, चाहे अन्य संप्रदायों के, पुराणों (वि
१. लियोन फियर द्वारा जर्नल ऑव पालिटैक्स्ट सोसायटी, १८८४, पृष्ठ १५२
६१ में सम्पादिल ।