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( ३९ ) ऋऔर लू के पालि प्रतिरूप (अ) ऋ का परिवर्तन पालि में त्रिविध होता है । कहीं अ, कहीं इ, कहीं उ। ममीपी ध्वनियों पर यह अधिक निर्भर करता है कि कब क्या परिवर्तन हो। ओष्ठ्य अक्षरों के बाद अक्मर उ होता है। फिर भी प्रयोगों के अनुसार विविधता पाई जाती है, जिसे नियमों में नहीं बाँधा जा सकता। ऋ का परिवर्तन बहुत प्राचीन है । ऋग्वेद में भी यह पाया जाता है । विद्वानों का अनुमान है कि संस्कृत 'अवट' शब्द पहले 'अवृत' था। 'विकट' और 'विकृन' शब्द दोनों माथ माध ऋग्वेद में मिलते हैं। यास्क भी इस तथ्य से अवगत हैं। उन्होंने 'कुटस्य' 'कृतस्य' जैसे समानार्थवाची शब्दों के उदाहरण दिये हैं। उत्तरकालीन युग में इस परिवर्तन की मुख्यतः दो प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। प्रथम में ऋ का परिवर्तित स्वरूप 'अ' हो जाता है और दूसरी में 'इ' या 'उ' । प्रथम प्रवृत्ति के परिचायक सामान्यतः पालि, अशोक के गिरनार-गिलालेख, महागष्ट्री प्राकृत एवं अर्द्धमागधी प्राकृत हैं। दूसरी प्रवृत्ति के परिचायक विशेषतः अशोक के पूर्व और उत्तर-पश्चिम के गिलालेख एवं शौरसेनी प्राकृत हैं।
उदाहरण (१) ऋ की जगह 'अ' हो जाता है
संस्कृत ऋक्ष
अच्छ वृक
वक हृदय
हृदय दल्ह (गिरनार शिलालेख)
मग (गिरनार शिलालेख) (२) ऋ की जगह 'ई' हो जाती है--
कित (शौरसेनी किड) (अशोक पालि) मित (शौरसेनी मुद)
(अशोक-यालि) ऋक्ष
इक्क ऋण
इण वृश्चिक
विच्छिक
पालि