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( ५१२ ) के प्रतीक हैं अतः सम्भव है आचार्य बुद्धघोष से, जो स्मृति मे लिख रहे होंगे, दोनों के साधर्म्य के कारण यहगलती हो गई हो । यदि इस गलती को गलती के रूप में स्त्रीकार कर भी लिया जायतो भी यह उनके ब्राह्मण याअ-ब्राह्मण होने से किस प्रकार सम्बन्धित हो सकता है ? यह सूक्त-विषयक अनभिज्ञता तो बुद्धघोष के ब्राह्मण या अ-ब्राह्मण दोनों के ही होते हुए हो सकती थी। अतः इसके कारण आचार्य कोसम्बी का बुद्धघोष को अ-ब्राह्मण ठहराना ठीक नही जान पड़ता। इसी प्रकार चूंकि बुद्धघोष ने 'गृहपति' या कृषक-वर्ग की प्रशंसा की है, उनको किसी किसान के घर उत्पन्न हुआ मानना भी ठीक नहीं होगा, जैसा मानने का आचार्य कोसम्बी ने प्रस्ताव किया है ।' संस्कृत शास्त्रों का बुद्धघोष का ज्ञान अपूर्ण था, यह भी उद्ध‘रण देकर आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने दिखाने का प्रयत्न किया है । २ उधर डा. विमलाचरण लाहा ने कोई ऐसा भारतीय ज्ञान-शास्त्र ही नहीं छोड़ा है जिस पर बुद्धघोष का पूर्ण अधिकार न दिखा दिया हो। हम समझते हैं कि सत्य इन दोनों कोटियों के बीच में है । आचार्य बुद्धघोष को संस्कृत-साहित्य से अवगति अवश्य थी, किन्तु वह उस अगाध पांडित्य के रूप में नहीं था जिसे हम एक वेदज्ञ ब्राह्मण के साथ संयुक्त कर सकते हैं। बरमी परम्परा की यह मान्यता है कि आचार्य बुद्धघोष वरमा में भो बुद्व-धर्म के प्रचारार्थ गये थे । किन्तु इसका अब तक कोई निश्चित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिला। उसके अभाव में हम यही मान सकते
सम्पादित) के प्राक्कथन, पृष्ठ १३ में उद्धृत। १. विसुद्धिमग्ग (कोसम्बोजी द्वारा सम्पादित) पृष्ठ १३ एवं १६ (प्राककवन) २. विसद्धिमग्ग (धर्मानन्द कोसम्बी का संस्करण,) के प्राक्कथन में पृष्ठ १३-१४ ३. उन्होंने अपने ग्रन्थ 'दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष' में एक पूरा परिच्छेद
(छठा) ही आचार्य बुद्धघोष की विश्व-कोश जैसी बहुज्ञता के विवरण के लिए दिया है, पृष्ठ १०४-१३५ । ४. उन्होंने पाणिनि के नियम के अनुसार अनेक पालि शब्दों की व्युत्पत्ति को है।
देखिये आगे दसवें अध्याय में पालि व्याकरण-साहित्य का विवेचन । बुद्धघोसप्पत्ति (पृष्ठ ६१, ग्रे का संस्करण) के अनुसार सिंहली भिक्षुओं ने भी बद्धघोष के संस्कृत-ज्ञान के विषय में सन्देह किया था, जिसका उन्होंने एक प्रभावशाली भाषण दे कर निराकरण भी कर दिया था। देखिये लाहा : दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष, पृष्ठ ३८-३९ ।