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( ५०३ ) को छोड़कर चल दी।' इस विवरण से दो बातें स्पष्ट हो जाती है । एक तो यह कि बुद्धदत्त बुद्धघोष से पहले लंका गये थे और दूसरी यह कि वे आयु में बुद्धघोष से बड़े थे, क्योंकि उक्त संलाप में उन्होंने बुद्धघोष को 'आवुस' कह कर पुकारा है जो बड़ों के द्वारा छोटों के लिय प्रयुक्त किया जाता है ।२ बुद्धदत्त ने अपने विनय-विनिच्छय (विनय-पिटक की अट्ठकथा) के आरम्भ में ही वुद्धघोष के साथ अपने मिलन और संलाप का वर्णन किया है। उससे प्रकट होता है कि बुद्धदत्त ने बुद्धघोष से यह प्रार्थना की थी कि जव वे अपनी अट्ठकथाएँ समाप्त कर लें तो उनकी प्रतियाँ उनके पास भी भेज दें, ताकि वे उन्हें संक्षिप्त रूप प्रदान कर सकें । आचार्य बुद्धघोष ने उनकी इस प्रार्थना के अनुसार बाद में अपनी अट्ठकथाएँ उनके पास भेज दीं । आचार्य वुद्धदत्त ने आचार्य वुद्धघोषकृत अभिधम्म-पिटक को अट्टकथाओं का संक्षेप 'अभिधम्मावतार' में और विनय सम्बन्धी अट्ठकथा का संक्षेप 'विनय-विनिच्छय' में किया। इस सूचना में सन्देह करने की कोई आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि यह स्वयं बुद्धदत्त द्वारा दी हुई है। हाँ, 'बुद्धघोसुप्पत्ति' के वर्णन के साथ उसका कुछ विरोध अवश्य है, क्योंकि लंका से लौटने के समय ही वे 'अल्पायु' तक जीने की आशा रखते थे, फिर इतनं काल तक बुद्धघोष की अट्ठकथाओं के संक्षेप लिखने के लिये किस प्रकार जीवित रहे ? फिर भी इसमें कुछ वैसा विरोध नहीं है, जिस पर विश्वास ही नहीं किया जासके । हर हालत में 'बुद्धघोमुप्पत्ति' के वर्णन की अपेक्षा 'विनय-विनिच्छय' का वर्णन ही अधिक प्रामाणिक है, और यदि दोनों स्थविरों को हम प्रायः समवयस्क मान सकें, तब तो उनमें कुछ ऐसा अन्तर भी नही है । आचार्य बुद्धदत्त चोल-राज्य में उरगपुर (वर्तमान उरइपुर) के निवासी थे । आचार्य बुद्धघोष के समान उन्होंने
१. एवं तेसं द्विन्नं थेरानं अञ्जमधे सल्लपन्तानं येव द्वे नावा सयं एव अपनेत्वा
गच्छिंसु । बुद्धघोसुप्पत्ति एवं सासनवंस, ऊपर उद्धृत के समान । २. मिलाइये बुद्धदत्त के ग्रन्थों के सम्पादक उसी नाम के आधुनिक सिंहली भिक्षु (बुद्धदत्त) का यह कथन “अयं पन बुद्धदत्ताचरियो बुद्धघोसाचरियेन समानवस्सिको वा थोकं वुड्ढतरो वा ति सल्लक्खेम" (अचार्य बुद्धदत्त बुद्धघोष के समवयस्क याकुछ ही बड़े थे, ऐसा लगता है)