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" भन्ते नागसेन ! पर क्या है वह जो जन्म ग्रहण करता है ? भन्ते नागसेन को पटिसन्दहति ?
"हे महाराज ! नाम-रूप जन्म ग्रहण करता है । नाम-रूपं खो महाराज पटिसन्दहति ।"
"क्या यही नाम रूप जन्म ग्रहण करता है ?" "महाराज ! यह नाम-रूप जन्म ग्रहण नहीं करता, किन्तु इस नाम रूप के द्वारा जो शुभ या अशुभ कर्म किये जाते हैं और उन कर्मों के द्वारा जो अन्य नाम रूप उत्पन्न होता है, वही जन्म ग्रहण करता है, ।” २ आगे समझाते हुए स्थविर कहते हैं "हे राजन् ! मृत्यु के समय जिसका अन्त होता है वह तो एक अन्य नाम-रूप होता है और जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है वह एक अन्य होता है । किन्तु द्वितीय ( नाम-रूप ) प्रथम ( नाम - रूप ) में से ही निकलता है 3. . अतः हे राजन् ! धर्म - सन्तति ही संसरण करती है, जन्म ग्रहण करती है - एवमेव खो महाराज धम्मसन्तति सन्दहति । "
इस प्रकार भदन्त नागसेन ने अनात्मवाद के साथ पुनर्जन्मवाद की संगति मिलाने का प्रयत्न किया है, जो बौद्ध दर्शन की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । द्वितीय परिच्छेद ( लक्खण पञ्हो) की मुख्य विषय-वस्तु इतनी ही है ।
तृतीय परिच्छेद ( विमतिच्छेदन पञ्हो) में राजा के सन्देहों (विमति ) का, जो उसे अनेक छोटे छोटे विषयों पर हुए थे, भदन्त नागसेन द्वारा निवारण किया गया है । इस प्रकार के अनेक सन्देहों कां इस परिच्छेद में विवरण किया गया है, जिनमें से कुछ का ही निदर्शन यहाँ किया जा सकता है । उदा
विञ्ञाणे पच्छिमविञ्ञाणं संगहं गच्छतीति । मिलिन्दपञ्हो, लक्खणपञ्हो, पृष्ठ ४२ (बम्बई विश्वविद्यालय का संस्करण )
१. नाम अर्थात् सूक्ष्म चित्त और चेततिक धर्म । रूप अर्थात् चार महाभूत और उनका विकार ।
२. न खो महाराज इमं येव नामरूपं पटिसन्दिहति । इमिना पन महाराज नामरूपेन कम्मं करोति सोभनं वा पापकं वा तेन कम्मेन अञ्ञं नामरूपं पटिसन्दहतीति ३. एवमेव खो महाराज किञ्चापि अञ्ञ मरणान्तिकं नामरूपं अयं पटिसन्धिस्मिं नामरूपं अपि च ततो येव तं निब्बत्तं ति ।