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निश्चयपूर्वक समझ हो लेना चाहिए कि मूल रूप में 'मिलिन्द पञ्ह' का प्रणयन, उत्तर-पश्चिमी भारत में, द्वितीय या प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व हुए, भदन्त नागसेन
और ग्रीक राजा मेनान्डर के संवाद के आधार पर, उसी समय या कम से कम प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व के निकट, वौद्ध धर्म सम्बन्धी शंकाओं के निवारणार्थ हुआ। उसके रचयिता भी भदन्त नागसेन हो माने जा सकते है । महा-स्थविर बुद्ध घोषाचार्य की भी यही मान्यता थी। ग्रन्थ के नायक होने के साथ साथ उनके इस ग्रन्थ के रचयिता होने में कोई विरोध नहीं है। ऐसी निर्वैयक्त्तिकता भारतीय साहित्य में अनेक बार देखी जाती है। कम से कम श्रीमती रायस डेविड्स ने जो 'मिलिन्द पह' के रचयिता का नाम 'माणव' बतलाया है, उसके लिए तो कोई ऐतिहासिक आधार नही मिलता और उसे उनकी कल्पना से प्रसूत ही समझना चाहिए।
अक्सर (विशेषतः पश्चिमी विद्वानों द्वारा) यह कहा जाता है कि 'मिलिन्द पन्ह' एक इकाई-बद्ध रचना नही है और उसका प्रणयन भिन्न-भिन्न लेखकों द्वारा भिन्न-भिन्न युगों में आ है । परिच्छेदों की एक दूसरे से भिन्नरूपता एवं शैली और विषय-वस्तु को भी विभिन्नता के कारण यह मान लिया गया है कि मौलिक रूप में ग्रन्थ बहुत छोटा होगा, सम्भवतः वह मिलिन्द और नागसेन के संवाद के संक्षिप्त विवरण के रूप में था, और बाद में स्थविरवाद बौद्ध धर्म की दृष्टि से जो विषय महत्त्वपर्ण थे उनको प्राचीन नमूनों के आधार पर इसमें जोड़ा जाता रहा। ग्रन्थ का प्रस्तुत रूप इमो परिवर्द्धन का परिणाम है । 'मिलिन्द पञ्ह' के अनेकरूपतामय आन्तरिक माक्ष्य के अलावा एक और प्रभावशाली बाहय साक्ष्य इस मत के प्रतिपादन में दिया गया है कि प्रस्तुत पालि 'मिलिन्द पञ्ह' एक मौलिक रचना न होकर अनेक परिवर्द्धनों का परिणाम है अथवा स्वयं मौलिक रूप से संस्कृत में लिखे हुए ग्रन्थ का पालि रूपान्तर है । वह है इस ग्रन्थ का चीनी अनुवाद, जो सन् ३१७ और ४२० ई. के बीच किया गया। पालि 'मिलिन्द पन्ह' में ७ अध्याय हैं, यथा (१) बाहिर कया, (२) लक्खण पञ्हो, (३) विमतिच्छेदन पञ्हो, (४) मेण्डक पञ्हो, (५) अनुमान पञ्हं, (६) धुतंग कथा, तथा (७)
१. देखिये उनका मिलिन्द क्विशन्स, लन्दन, १९३०