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·१६८-७१. क्या यह कहना गलत है कि संघ दान को पवित्र करता है, या स्वयं उसे खाता, पीता है, या संघ को दान की हुई वस्तु बड़ा पुण्य पैदा करती है, या बुद्ध को दान की हुई वस्तु बड़ा पुण्य पैदा करती है ? ये सब सिद्धान्त वैतुल्यक नामक महाशुन्यता - वादियों के थे । इन्हीं में बाद में महायानसम्प्रदाय का विकास हुआ ।
'१७२. क्या दान देने वाले के द्वारा ही पवित्र किया जाता है, ग्रहण करने वाले के द्वारा नहीं ? उत्तरापथकों का यही विश्वास था । अठारहवाँ अध्याय
'१७३.-७४ क्या यह कहना गलत है कि बुद्ध मनुष्यों के लोक में रहे ? क्या यह भी गलत है कि उन्होंने उपदेश दिया ? 'हाँ गलत ही है' ऐसा वेतुल्यक ( वैपुल्यक) कहते थे। बाद में चल कर महायान धर्म ने भी यही कहा "भगवान् तथागत मौन है। भगवान् बुद्ध ने कभी किसी को कुछ नहीं मिखाया " ( मौनाः हि भगवन्तस्तथागताः । न मौनस्तथागतैर्भाषितम् ) इस सब के बीज हम यहीं पाते हैं ।
क्योंकि
१७५. क्या बुद्ध को करुणा उत्पन्न नहीं हुई ? 'नही हुई', कहते थे उत्तरापथक, करुणा को भी वे आसक्ति का ही रूप मानते थे ।
१७६. क्या यह सत्य है कि भगवान् बुद्ध के मल में से भी अद्वितीय सुगन्ध आती थी ? अन्धक और उत्तरापथकों का यही मत था ।
१. मिलाइये, ज्ञानातिलोक “ According to my opinion वैतुल्य is a distortion of वैपुल्य and the वैपुल्य sutras of the Mahayana refer to the above-mentioned heretics (Vetulyakas known as महाशुन्यतावादिन् s ) whose ideas, too, appear to be perfectly Mahayanistic.” गाइड दि अभिधम्मपिटक, पृष्ठ ६०; राहुल सांकृत्यायन : “वैपुल्य ही वह नाम है जिससे महायान आरम्भिक काल में प्रसिद्ध हुआ" पुरातत्व निबन्धावली, पृष्ठ १३१ । 'शून्यता' (सुञता) के विचार का निर्देश संयुक्त निकाय के ओपम्म वग्ग में तथा अंगुत्तर निकाय के अनागतभय-सूत्रों (चतुक्क और पंचक निपात) में हुआ है । इस विषय सम्बन्धी अधिक निरूपण के लिए देखिये श्रीमती रायस डेविड्स् : ए बुद्धिस्ट मेनुअल ऑव साइकोलोजीकल एथिक्स ( धम्मसंगणि का अनुवाद) पृष्ठ ४२ (भूमिका)