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________________ ( ४४१ ) पन्द्रहवाँ अध्याय १४१. क्या 'प्रतीत्य समुत्पाद' का प्रत्येक धर्म (अवस्था) केवल एक ही प्रत्यय का सूचक है ? महासांघिक भिक्षुओं का ऐसा ही मत था । १४२. क्या यह कहना गलत है कि 'संस्कारों के प्रत्यय से अविद्या की उत्पत्ति होती है', जैसे कि 'अविद्या के प्रत्यय से संस्कारों की उत्पत्ति होती है ?' महासांघिकों के मतानुसार यह कहना गलत ही था। स्थविरवादियों ने इसे 'सहजात-प्रत्यय' या 'अन्योन्य-प्रत्यय' के आधार पर व्याख्यात किया है और गलत नहीं माना। १४३. क्या काल परिनिष्पन्न (परिनिप्फन्न) है ? १४४. क्या काल के सभी क्षण परिनिष्पन्न हैं ? १४५. क्या आस्रव (काम-आम्रव, भवास्रव, दृष्टि-आस्रव, अविद्यास्रव) दूसरे आत्रवों से असंलग्न है ? हेतुवादी भिक्षुओं का यही मत था। १४६. क्या लोकोत्तर भिक्षुओं के जग और मरण भी लोकोत्तर होते है ? महा सांघिकों का यह मत था । स्थविरवादियों के मतानुसार इनकी भौतिक या मानसिक सत्ता ही नहीं है, अतः न ये लौकिक हैं, न लोकोत्तर । १४७. क्या निरोध-समापनि (निरोध-समाधि) लोकोत्तर है ? हेतुवादियों कामत। १४८. क्या वह लौकिक (लोकिय) है ? पूर्वोक्त के समान । १४९. क्या निरोध-समाधि की अवस्था में मृत्यु भी हो सकती है। राजगृहिक कहते थे कि हो सकती है । स्थविरवादी भिक्षुओं के मतानुसार नही हो सकती। १५०. क्या निरोध-समाधि के बाद संजा-हीन प्राणियों (असञ्जसत्त) के लोक में उत्पत्ति होती है ? हेतुवादियों का यही मिथ्या विश्वास था । १५१. क्या कर्म और कर्म-संचय दो विभिन्न वस्तुएँ हैं ? अन्धक और सम्मितियों का ऐसा ही विश्वास । सोलहवाँ अध्याय १५२. क्या कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के मन को नैतिक रूप से शिक्षित कर सकता है या उसे सहायता पहुंचा सकता है ? महासांघिओं का यह मत था।
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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