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पाँचवीं शताब्दी ईसवी) उम ममय तक इन संप्रदायों का स्वरूप निश्चित हो चुका था और वे बौद्ध परम्परा में प्रतिष्ठा पा चुके थे । यही कारण है कि अट्ठकथाकार ( महास्थविर बुद्धघोष ) ने कथावत्थ में खंडन के लिए प्रस्तुत जिन जिन सिद्धांतों की समता अपने काल में प्रचलित या परम्परा से प्राप्त संप्रदायों की मान्यताओं के साथ देखी, उन्हें उनके साथ संबंधित कर दिया है । अतः हम उन विद्वानों ( विशेषत: राहुल सांकृत्यायन और ज्ञानातिलोक ) के मन से सहमत नहीं हैं जो कथावत्थु के कतिपय अंशों को अशोक के काल मे बाद की रचना मानते हैं। जैसा हम अभी स्पष्ट कर चुके हैं, सिद्धांत संप्रदायों की उपेक्षा अधिक प्राचीन हैं और संप्रदायों का नामोल्लेख कथावत्थु में है नहीं । अतः वह निश्चय ही अपने संपूर्ण रूप में अशोककालीन रचना है और उस काल के भिक्षु संघ में स्फुट रूप से प्रचलित नाना मिथ्या धारणाओ और शकाओ के निराकरण के द्वारा मूल बुद्ध धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने का वह प्रयत्न करती है । बाद में इन्हीं ( स्थविरवादी दृष्टिकोण मे ) मिथ्या धारणाओं और शंकाओं ने विकमित होकर विभिन्न निश्चित संप्रदायों और उपसंप्रदायों का रूप धारण कर लिया, जिनका साक्ष्य उसकी अट्ठकथा देती है ।
'कथावत्थु ' के २१६ शंका-समाधान २३ अध्यायों में विभक्त है, यह अभी कहा जा चुका है । इनमें से कई समाधान दार्शनिक दृष्टि से बड़े महत्व के हैं । बुद्ध के दर्शन की मनमानी व्याख्या पहले के युगों में भी बहुत की जा चुकी है और आज भी बहुत की जाती है । तथाकथित ब्राह्मण दार्शनिक यदि इम दिशा में मार्ग - भ्रष्ट हुए हैं तो उनसे कम बौद्ध दार्शनिक भी नहीं । महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ठीक ही सर राधाकृष्णन के उस प्रयत्न की हंसी उड़ाई है और उसे 'बाल- धर्म' ( भारी मूर्खता) निश्चित कर दिया है जो उन्होंने बुद्ध को उपनिषद् के आत्मवाद का प्रचारक सिद्ध करने के लिए किया है । यदि मनीषी राधाकृष्णन् कथावन्थ के प्रथम अध्याय के प्रथम शंकासमाधान में ही स्पष्ट इस विषयक स्थविरवादी दृष्टिकोण की सम्यक् अवधारणा कर लेते तो वे मूल बुद्ध दर्शन के साथ आत्मवाद या अन्य ऐसी किसी
१. देखिये महापंडित राहुल सांकृत्यायन का दर्शन-दिग्दर्शन, पृष्ठ ५३०-३२
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