________________
(
४१२ )
के रूप में यहाँ सिंहावलोकन है । चूंकि इसमें धर्म के सब तत्व अपने आप आ गये हैं, इसलिये इमे 'धर्म का हृदय' कहा गया है । कुछ प्रश्नों की बानगी देखियेकितने धर्म काम-धातु में प्राप्त होते हैं ? कितने रूप-धातु में ? कितने अरूपधातु में ? कितने कामावर है ? कितने रूपावचर ? कितने अरूपावचर ? कितने छोड़ने योग्य ? कितने भावना करने योग्य ? आदि, आदि । गीतोक्त भगवान् की विभूतियों की तरह इनका कहीं अन्त ही नहीं दिखाई पड़ता। इसीलिये इनका संक्षेप देने का भी यहाँ प्रयत्न नहीं किया गया।
धातुकथा' ___ विभंग के १८ विभंगों में मे स्कन्ध, आयतन और धातु, इन प्रथम तीन विभंगों को चनकर उनका विशेप अध्ययन धातुकथा में किया गया है। स्कन्ध आयतन और धातु, यही धातुकथा के विषय हैं। अतः उसका पूरा नाम ही, जैसा महास्थविर ज्ञानातिलोक ने कहा है, 'खन्ध-आयतन-धातु-कथा' होना चाहिये । धातुकथा के विषय-प्रतिपादन की एक विशेष शैली यह है कि यहाँ स्कन्ध, आयतन और धातुओं का सम्बन्ध धर्मों के साथ दिखलाया गया है। इन धर्मों की संख्या उसकी ‘मातिका' के अनुसार १२५ है, जो इस प्रकार है, ५ स्कन्ध, १२ आयतन, १८ धातुएँ, ८ सत्य, २२ इन्द्रिय, प्रतीत्य समुत्पाद, ४ स्मृति-प्रस्थान ४ सम्यक् प्रधान, ४ ऋद्धिपाद, ४ ध्यान, ४ अपरिमाण, ५ इन्द्रिय, ५ बल, ७ वोध्यंग, ८ आर्य-मार्ग के अंग, स्पर्श, वेदना, संज्ञा, चेतना, चित्त, अधिमोक्ष और मनमिकार । किस-किस स्कन्ध, आयतन या विभंग में कौन-कौन धर्म सम्मिलित (संगहित), अ-सम्मिलित (असंगहित), संयुक्त (सम्प्रयुक्त) या वियुक्त (विप्पयन) आदि है, इमी का विवेचन १४ अध्यायों में प्रश्नोत्तर ढंग से किया गया है, जिसकी रूपरेखा इस प्रकार है--
१. ई० आर० गुणरत्न द्वारा अट्ठकथा-सहित पालि टैक्सट सोसायटी के लिए
सम्पादित। उक्त सोसायटी द्वारा सन् १८९२ में रोमन लिपि में प्रकाशित । इस ग्रन्थ के सिंहली, बर्मो एवं स्यामी संस्करण उपलब्ध हैं। हिन्दी में न संस्करण हैं और न अनुवाद !