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अवश्य है, किन्तु सिद्धांतों का मूल आधार सुत्तन्त ही है । अभिधम्म के सिद्धांतों, वर्गीकरणों और विभागों के मूल स्रोतों को सुत्तन्त में खोज निकालना अध्ययन का एक अच्छा विषय हो सकता है । उससे दोनों का तुलनात्मक अध्ययन होने के अतिरिक्त स्वयं अभिधम्मपिटक के दुरूह सिद्धांतों का समझना भी सुगम हो जाता हैं । प्रथम बार भिक्षु जगदीश काश्यप ने इस प्रकार का अध्ययन प्रस्तुत किया है।' उनके मतानुसार विभज्यवाद जिस प्रकार सुत्तन्त का दर्शन है उसी प्रकार वह अभिधम्म का भी दर्शन है । 'विभज्यवाद' का अर्थ है मानसिक और भौतिक जगत् की संपुर्ण अवस्थाओं का विश्लेषण कर चुकने पर भी उनमें कहीं 'अत्ता' ( आत्मा ) का नहीं मिलना । पहिये, धुरा, जुआ आदि सभी भागों से व्यतिरिक्त 'रथ' की सत्ता नहीं है । इसी प्रकार व्यक्ति भी रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान रूपी पाँच स्कंधों की समष्टि के अलावा और कुछ नहीं है । ये सभी स्प्रन्ध अनित्य, अनात्म और दुःख हैं । इनमें अपनापन खोजना दुःख काही कारण हो सकता है । यही बुद्ध का दर्शन है, जो सुत्तपिटक में अनेक बार प्रस्फुटित हुआ है । उदाहरणतः संयुत्त निकाय के इस बुद्ध वचन को लीजिये, “हे गृहपति ! यहां अश्रुतवान्, आर्यों के दर्शन से अनभिज्ञ, अज्ञानी मनुष्य, रूप को आत्मा के रूप में देखता है, अथवा आत्मा को रूपवान् समझता है, या आत्मा में रूप को देखता है या रूप में आत्मा को देखता है । वह समझता है -- मैं रूप है और रूप मेरा है । इस प्रकार 'मैं रूप हूँ और रूप मेरा है' समझते हुए उसके रूप में परिवर्तन होता है, विपरिणाम होता है, कुछ का कुछ हो जाता है । गृहपति ! इसी से उत्पन्न होते हैं शोक, परिदेव ( रोना-धोना ) दुःख, दौर्मनम्य और मानसिक कष्ट" | वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान को लेकर भी -इसी प्रकार दुःख समुदय का क्रम दिखाया गया है । व्यक्ति के उपर्युक्त पाँच
१. अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ १९-३१
२. इध गहपति, अस्सुतवा पृथुज्जनो अरियानं अदस्सावी रूपं अत्ततो समनुपस्सति रूपवन्तं वा अत्तानं, अत्तनि वा रूपं, रूपस्मिं वा अत्तानं । अहं रूपं मम रूपं ति परियुट्ठट्ठायी होति । तस्स अहं रूपं मम रूपं ति परियुट्ठट्ठतो तं रूपं परिणमति अञ्ञ्ञथा होति, तस्स रूपविपरिणामञ्ञथाभावा उत्पज्जन्ति सोक- परिदेव - दुक्ख दोमनस्सूपायासा । अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २० में उद्धृत ।