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( ३२० ) "आनन्द ! अमूढ़ विनय कैसे होता है ?........."आबुस ! मैं पागल हो गया था, मुझे मति-भ्रम हो गया था, उन्मत्त हो मैंने बहुत सा श्रमण-विरुद्ध आचरण किया, भाषण किया, मुझे वह स्मरण नहीं होता। मुढ़ हो, मैंने वह किया। उस भिक्षुको आनन्द ! अ-मढ़-विनय देना चाहिये ।
__ “आनन्द ! प्रतिज्ञात करण कैसे होता है ? आनन्द ! .....भिक्षु दूसरों के द्वारा आरोप करने या न करने पर भी अपने दोष को स्मरण करता है, खोलता है, स्पष्ट करता है। उस भिक्षु को अपने से वृद्धतर भिक्षु के पास जाकर चीवर को एक (बायें) कन्धे पर करके, पाद-वन्दना कर हाथ जोड़कर ऐसा कहना चाहिये, 'भन्ते ! मैं इस नाम की आपत्ति (दोष) से आपन्न हूँ, उसकी मैं प्रतिदेशना (निवेदन) करता हूँ। तब वह दूसरा भिक्षु ऐसा कहे “देखते हो उस दोष को ?” “देखता हूँ" "आगे से इन्द्रिय-रक्षा करना", "रक्षा करूँगा"। आनन्द ! इस प्रकार प्रतिज्ञात-करण होता है। ___“आनन्द ! तत्पापीयसिका कैसे होती है ? यहाँ आनन्द ! किसी भिक्षु पर कोई दूसरा भिक्षु पाराजिक या पाराजिक-समान भारी अपराध का दोष लगाता है । वह उसे सुनकर कहता है, 'आवस! मुझे स्मरण नहीं कि मैं ऐसी भारी आपत्ति से आपन्न हुआ हूँ' फिर दोष लगाने वाला भिक्षु कहता है 'आयुप्मन् ! अच्छी तरह बूझो । क्या तुम्हें स्मरण है कि तुम ऐसी भारी आपत्ति मे आपन्न हए थे !' 'आवस ! मैं स्मरण नहीं करता कि मै ऐसी भारी आपत्ति मे आपन्न हुआ। स्मरण करता हूँ आवुस ! मै इस प्रकार की छोटी आपत्ति से आपन्न हआ' । 'आयुष्मन् ! अच्छी तरह झो।' 'आवस ! मैं इस प्रकार की छोटी आपत्ति से आपन्न हुआ, यह मैं बिना पूछे ही स्वीकार करता हूँ, तो क्या मैं ऐसी भारी आपत्ति से आपन्न हो पूछने पर भी स्वीकार न करूँगा' । अधिक जोर देने पर वह स्वीकार करले 'आवुस ! स्मरण करता हूँ मैं ऐसी भारी आपत्ति (दोष मे आपन्न हुआ। सहसा प्रमाद से मैने यह कह दिया कि मैं स्मरण नहीं करता। इस प्रकार आनन्द! तत्पापीयसिका (उससे भी और कड़ी आपत्ति) होती है।
आनन्द! तिण्ण वित्थारक कैसे होता है ? आनन्द ! आपस में कलह करते हुए भिक्ष बहुत से श्रमण-विरुद्ध आचरण करते और भाषण करते हैं। उन सभी भिक्षओं को एकत्रित होना चाहिए। एकत्रित हो कर एक पक्ष वालों में से किमी चतुर भिक्षु को आसन से उठ कर चीवर को एक कन्धे पर कर हाथ जोड़ संघ को विज्ञापित करना चाहिए “भन्ते! मंघ सुने। कलह करते हुए हमने बहुत से