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दूसरा उत्तर है लंकाधिपति वट्टगामणि के समय में उनको लेखबद्ध कर के। त्रिपिटक का संकलन किया, इसलिये ‘पालि' 'बुद्ध-वचन' है, त्रिपिटक को लेखबद्ध किया, इसलिये ‘पालि' 'पंक्ति' है। ऐसा मालूम पड़ता है 'अभिधानप्पदीपिका' कार ने 'पालि' शब्द के इस पालन करने या रक्षा करने सम्बन्धी अर्थ पर जोर देकर उस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्य की ओर संकेत किया है,जो सिंहल में सम्पादित किया गया और जिसके विषय में 'महावंश' में लिखा है “त्रिपिटक की पालि (पंक्ति) और उसकी अट्ठकथा को, जिन्हें पूर्व में महामति भिक्षु कंठस्थ कर के ले आये थे, प्राणियों की (स्मृति-) हानि देख कर, भिक्षुओं ने एकत्रित हो, धर्म की चिरस्थिति के लिये पुस्तकों में लेखबद्ध करवाया।"१ कुछ भी हो, ‘पालि' शब्द के इतिहास की दृष्टि से 'अभिधानप्पदीपिका' की निरुक्ति अवश्य महत्वपूर्ण है, यद्यपि वह ‘पालि' शब्द के मौलिक रूप 'परियाय' पर विचार नहीं करती। वह केवल उसका समानार्थवाची 'बुद्ध-वचन' शब्द दे देती है । कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि 'पालि' शब्द की निरुक्ति और उसका अर्थ-निर्वचन जो 'परियाय' या 'पलियाय शब्द में उसके मुल रूप को खोजता है, हमारे. वर्तमान ज्ञान की अवस्था में एक मान्य सिद्धान्त है । 'तत्तु समन्वयात्' । पालि भाषा
ऊपर हमने चौदहवीं शताब्दी तक का 'पालि' शब्द का इतिहास देखा है। इस बीच हमें एक भी उदाहरण ऐसा न मिला जिसमें 'पालि' शब्द का प्रयोग भाषा-विशेष के अर्थ में किया गया हो। फिर कब इस शब्द का प्रयोग बुद्ध-वचन के स्थान पर जिस भाषा में बुद्ध-वचन लिखे गये, उसके लिये होने लगा, इसका निर्धारण करना कठिन है । फिर भी हुआ यह बड़े स्वाभाविक नियम के आधार पर। पहले तन्ति' या त्रिपिटक की भाषा को द्योतित करने के लिये सिंहल में 'तन्तिभाषा' जैसा सामासिक शब्द प्रचलित हुआ। उसी का समानार्थवाची शब्द 'पालि-भाषा' भी वाद में प्रयुक्त होने लगा। पालि-भाषा' अर्थात् पालि (बुद्धवचन) की भाषा। बाद में स्वयं 'पालि' शब्द ही भाषा के लिये प्रयुक्त होने लगा। आज 'पालि' से तात्पर्य हम उस भाषा से लेते हैं, जिसमें स्थविरवाद बौद्धधर्म का
४. ३३।१००-१०१; देखिये महावंश पृष्ठ १७८-७९ (भदन्त आनन्द कौसल्या
यन का अनुवाद)