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( २६४ ) आदेश दिया है। भिक्षु की रात्रि ध्यान करने के लिए है । एक भिक्षु का कहना है :
न ताव सपितं होति रत्ति नवखत्तमालिनी। , पटिजग्गितुमेवेसा रत्ति होति विजानता॥१ यह ताराओं से भरी रात सोने के लिए नहीं है । ज्ञानी के लिए यह गत जाग कर ध्यान करने के लिए है ।२ . . ___इस प्रकार हम देखते हैं कि विशेषत: वन्य और पार्वत्य प्रकृति के अनेक सुन्दर संश्लिष्ट चित्र हमें 'थेरगाथा' में मिलते हैं। वेस्सन्तर जातक (संख्या ५४७) में भी हमें ऐसे अनेक चित्र मिलते हैं । महर्षि वाल्मीकि को छोड़कर ऐसे संदिलष्ट वर्णन किसी प्राचीन या अर्वाचीन भारतीय कवि ने नहीं किये हैं। जितना गम और विराग इन प्राकृतिक वर्णनों में 'थेरगाथा' में मिलता है, उतना अन्य किसी काव्य में नहीं । विश्व-साहित्य में प्रकृति का वर्णन अधिकतर कवियों ने राग के उद्दीपन की दप्टि मे ही किया है। वाल्मीकि के समान उदात्त वर्णन करने वाले कवि बहुत कम हैं। हिन्दी के कवियों ने प्रायः संस्कृत के उत्तरकालीन कवियों का अनुसरण कर प्रकृति को शृंगार रस के उद्दीपन के रूप में ही चित्रित किया है । आधुनिक कवि और माधकों को वाल्मीकि की ओर देखने के साथ-साथ गगगमनकारी 'थेरगाथा' के प्रकृति-वर्णनों की ओर भी देखना चाहिये।
'थेरीगाथा', जैसा अभी कहा गया, ५२२ पालि इलोकों (गाथाओं) का संग्रह है जिसमें ७३ बुद्ध बौद्ध भिक्षुणियों के उद्गार सन्निहित है । अत्यन्त संगीतात्मक भाषा में, आत्माभिव्यञ्जनात्मक गीतिकाव्य की शैली के आधार पर अपने जीवनानुभवों को व्यक्त करते हुए यहाँ बौद्ध भिक्षुणियों ने अपने जीवन-काव्य को गाया है । नैतिक सच्चाई, भावनाओं की गहनता और सब से बढ़कर एक अपराजित वैयक्तिक ध्वनि, इन गीतों की मुख्य विशेषताएँ हैं। निर्वाण की परम गान्ति मे भिक्षुणियों के उद्गारों का एक एक शब्द उच्छ्वसित है । यहाँ संगीत
१. गाथा १९३ २. मिलाइये, “या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी ।" गीता २०६९